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________________ भगवान् श्री धर्मनाथ/१०१ तब इसकी माता को धार्मिक उपासना के अनेक दोहद (इच्छा) उत्पन्न हुए थे, जिन्हें प्रयत्नपूर्वक पूरा किया गया। अतः बालक का नाम धर्मकुमार रखा जाए'। उपस्थित लोगों ने बालक को इसी नाम से पुकारा। विवाह और राज्य बाल्यावस्था क्रीड़ा में बिताने के बाद धर्मकुमार के शरीर में जब तारुण्य आया तो उनके अंग-अंग से तेज फूटने लगा। सारा शरीर रश्मि पुंज जैसा प्रतिभासित होने लगा। राजा ने अपने कुल के अनुरूप सुयोग्य राजकन्याओं से राजकुमार का पाणिग्रहण करवाया। समयान्तर से अवसर देख कर राजा भानु ने आग्रहपूर्वक धर्मकुमार को राज्य सौंपा और स्वयं अनिकेत-साधना के साधक बन गये। धर्मकुमार अब राजा धर्मनाथ बन चुके थे। वस्तुतः उनकी राज्य संचालन की व्यवस्था धर्मराज्य की व्यवस्था थी। लोगों में स्वार्थ की भावना लुप्त सी हो गई थी। सामूहिक जीवनपद्धति का उत्तम क्रम चलने लगा। राज्य में कोई दुःखी नहीं था, किसी एक के कष्ट को सब अपना मानते थे। लोगों में अर्थ का उन्माद नहीं था। दीक्षा ____ मंगलमय राज्य-व्यवस्था चलाते हुए भगवान् धर्मनाथ ने चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम समीप देख राज्य-व्यवस्था का भार उत्तराधिकारी को दिया और दायित्व से मुक्त होकर स्वयं ने वर्षीदान की परम्परा निभाई। उनके निवृत्त होने की बात सुनकर अनेक भव्य आत्माओं के हृदय बदल गये। वे भी अपनी पिछली व्यवस्था का दायित्व दूसरों को सौंपकर दीक्षा के लिए तैयार हो गये। निश्चित तिथि माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन 'नागदत्त' नामक पालकी में बैठकर नगर से बाहर उपवन में आ गये। अपार मानवमेदिनी के मध्य पंचमुष्टि लोच किया और एक हजार व्यक्तियों के साथ सामायिक चारित्र ग्रहण किया । भगवान् के उस दिन बेले का तप था। दूसरे दिन सोमनस नगर के राजा धर्मसिंह के महलों में उन्होंने परमान्न से पारणा किया। यह उनकी प्रथम भिक्षा थी। इस अवसर पर देवों ने उत्सव किया, पंच द्रव्य प्रकट किये। केवल ज्ञान ___दो वर्ष तक भगवान् धर्मनाथ अभिग्रहयुक्त तप करते रहे। ध्यान की विविध प्रक्रियाओं के माध्यम से कर्म-निर्जरा करते हुए पुनः दीक्षा स्थल पर पधारे, शतपर्ण वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ बने और क्षपक-श्रेणी तक पहुंच गये । भावों की प्रबलता से घातिक-कर्मों का क्षय कर प्रभु ने सर्वज्ञता प्राप्त की । देवों ने उत्सव करके अपने उल्लास को प्रकट किया तथा समवसरण की रचना की । हजारों लोगों की उपस्थिति में प्रभु ने पहला प्रवचन दिया । लौकिक और लोकोत्तर मार्ग को भिन्न-भिन्न बतलाकर
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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