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________________ - हों उन्हें 'अपर्याप्त जीव' कहते हैं। अपर्याप्तजीवों की अपेक्षा पर्याप्तजीव श्रेष्ठ हैं। 12) जिनको हित-अहित, योग्य-अयोग्य, गुण-दोष आदि का ज्ञान होता 'सजी' कहते हैं, इसके विपरीत ‘असंज्ञी' हैं। असंज्ञियों से संज्ञी श्रेष्ठ हैं। .. पंचेन्द्रिय संज्ञी जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ है। उनमें भी धर्माचरण करने वाले मनुष्य प्रधान हैं, क्योंकि उन्होंने धर्ममय क्षेत्र (शरीर) में जन्म लिया है। (3) ग्रंथ-योजना भी वैशिष्ट्यपूर्ण है। संपूर्ण ग्रन्थ के मुख्य दो भाग मूलग्रन्थ ( से 20 परिच्छेद) और उत्तरतंत्र (21 से 25 परिच्छेद)। 'प्रांणावाय' (आयुर्वेद) संबंधी सारा विषय मूलग्रंथ में प्रतिपादित किया गया है। मूलग्रन्थ भी स्पष्टतया दो भागों में बंटा हुआ है-स्वास्थ्यपरक, रोगचिकित्सापरक । . . प्रथम परिच्छेद में आयुर्वेद (प्राणावाय: के अवतरण की ऐतिहासिक परम्परा बतायी गयी है और ग्रन्थ के प्रयोजन को लिखा गया है । • द्वितीय परिच्छेद से छठे परिच्छेद तक स्वास्थ्यरक्षणोपाय वणित हैं। स्वास्थ्य दो प्रकार का बताया गया है। पारमार्थिक स्वास्थ्य (आत्मा के संपूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न पात्यंतिक-नित्य अतीन्द्रिय मोक्षरूपी सुख), 2 व्यवहार स्वास्थ्य (अग्नि व धातु की समता, दोषविभ्रम न होना, मलमूत्र का ठीक से विसर्जन, आत्मा-मन-इन्द्रियों की प्रसन्नता)।1 छठे परिच्छेद में दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या, वाजीकरण और रसायन विषयों का वर्णन है, क्योंकि ये सभी स्वास्थ्यरक्षण के आधार हैं। सातवें परिच्छेद में रोग और चिकित्सा की सामान्य बातें, निदान पद्धति का वर्णन है। - आठवें से अठारहवें तक विभिन्न रोगों के निदान-चिकित्सा का वर्णन है। रोगों के मोटे तौर पर दो वर्ग किए गए हैं-1 महामय. 2 क्षुद्रामय । महामय माठ.प्रकार के हैं-प्रमेह, कुष्ठ, उदररोग, वातव्याधि, मूढगर्भ, अश्मरी और भगंदर । शेष सब रोग क्षुद्ररोगों की श्रेणि में आते हैं । क्षुद्ररोग के अन्तर्गत ही भूतविद्या संबंधी विषय--- बालग्रह और भूतों का वर्णन है। उन्नीसवें परिच्छेद में विषरोग- अगदतंत्र संबंधी विषय दिये गए हैं। मद्य को विष वर्ग में ही माना गया है। अन्तिम बीसवें परिच्छेद में सप्तधातूत्पत्ति, रोगकारण और अधिष्ठान, साठ प्रकार के उपक्रम व चतुर्विधकर्म, भोजन के बारह भेद, दश औषधकाल, स्नेहपाकादि की विधि, रिष्ट-वर्णन, मर्मवर्णन है। उत्तरतंत्र में क्षारकर्म, अग्निकर्म, जलौकाचचारण, शस्त्रकर्म, शिराव्यध, स्नेहनादि कर्मों के यथावत् न करने से उत्पन्न आपत्तियों की चिकित्सा,उत्तरबस्ति, गर्भादान,प्रसव, सूतिकोपचार, धूम्रपान, कवल गंडूष. नस्य, शोथ-वर्णन, पलितनाशन, केशकृष्णीकरण उपाय, रसविधि, विविध कल्पप्रयोग हैं। अंत में दो परिशिष्टाध्याय हैं । ---- 1 क. का. 2/3-4 ---- [ 1]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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