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________________ (इ) इसके बाद उत्तरतंत्र प्रारंभ होता है । इसके अन्तर्गत परिच्छेद21 कर्मचिकित्साधिकार (चतुर्विधकर्म-चिकित्सा क्षार, अग्नि, शस्त्र, औषध; जलौका, शिराव्यध), 22 भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकार (स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, बस्ति-अनुवासन-निरूह के असम्यक् प्रयोग से होने वाली आपत्तियों के भेद व प्रतिकार), 23 सवौषधकर्मव्यापच्चिकित्साधिकार (उत्तरबस्ति, वीर्य रोग, शुद्धशुक्र, शुद्धातव, गर्भादानविधि, गर्भिणीचर्या, प्रसव, सूतिकोपचार, धूम, कवलगह, नस्यविधि व्रणशोथ-शोथ, पलितनाशकलेप, केशकृष्णीकरणयोग), 24 रसरसायनसिध्यधिकार (रस, रससंस्कार, मूर्छन, मारण, बंधन, रसशाला, रसनिर्माण, रसप्रयोग), 25 कल्पाधिकार (हरीतकी, आमलक, त्रिफला, शिलाजतु, वाम्येषा ? कल्प, पाषाणभेदकल्प, भल्लातपाषाणकल्प, खपरीकल्प, वज्रकल्प, मृत्तिकाकल्प, गोशृग्यादिकल्प, एरंडादिकल्प, नाग्यादिकल्प, क्षारकल्प, चित्रककल्प, त्रिफलादिकल्प)। अंतिम दो परिशिष्टाध्यायो के प्रथम 'रिष्टाध्याय' में मरणसूचक लक्षणों व चिह्नों का निरूपण किया गया है । द्वितीय, 'हिताहिताध्याय' में मांसभक्षण-निषेध का युक्तियुक्त विवेचन है। इस अध्याय में स्वयं आचार्य उग्रादित्य की संस्कृत टीका भी उपलब्ध है । इस ग्रन्थ में 'वैद्य' के लिए कहा गया है कि वह बहुत अर्थों (विषयों) को जानने वाला होना चाहिए। विद्या के बल से चिकित्सा करने वाले को ही वैद्य कहते हैं 'तस्माद्वंद्यमुदाहरामि नियतं ब ह्वर्थमर्थावहं ।। वैद्यं नाम चिकित्सितं न तु पुनः विद्योद् भवार्थान्तरम् ।। । चिकित्सा को ही वैद्य (वैद्यत्व या वैद्यकर्म) कहते हैं, केवल विद्या से जाने गये अन्य अर्थों को ही वैद्य नहीं कहा जा सकता। ग्रन्थ का उद्देश्य-- उग्रादित्याचार्य ने लिखा है - "स्वयं के यश के लिए या विनोद के लिए या कवित्व के गर्व के लिए या हमारे पर लोगों की अभिरुचि जागृत करने के लिए मैंने इस ग्रन्थ की रचना नहीं की है; अपितु यह समस्त कर्मों का नाश करने वाला जैनसिद्धांत है ऐसा स्मरण करते हुए इसकी रचना की है।" ___ "जो विद्वान् मुनि आरोग्यशास्त्र को भलीभांति जानकर उसके अनुसार आहारविहार करते हुए स्वास्थ्य-रक्षा करते हैं, वह सिद्धसुख को प्राप्त करता है। इसके विपरीत जो आरोग्य की रक्षा न करते हुए अपने दोषों से उत्पन्न रोगों द्वारा शरीर को पीड़ा पहुंचाते हुए, अपने अनेक प्रकार के दुष्परिणामों के भेद से कर्म से बंध जाता है।" "बुद्धिमान् व्यक्ति दृढ़ मन वाला होने पर भी यदि रोगी हो वह न धर्म कर सकता है, न धन कमा सकता है और न मोक्षसाधन कर सकता है। इन पुरुषार्थों की प्राप्ति न होने से वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं रह जाता।" "इस प्रकार उग्रादित्याचार्य द्वारा प्रणीत यह शास्त्र कर्मों के मर्मभेदन करने के [ 62 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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