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________________ ने इस स्थान पर कब्जा जमाया और उसे अपने धर्मस्थान के रूप में परिवर्तित कर दिया । डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने रामतीर्थ की वैभवपूर्ण स्थिति को 11वीं शताब्दी के मध्य तक स्वीकार किया है __ "रामतीर्थ (रामगिरि) भी 11वीं शताब्दी के मध्य तक प्रसिद्ध एवं उन्नत जैन सांस्कृतिक केन्द्र बना रहा जैसा कि वहां के एक शिलालेख से प्रमाणित होता है। विमलादित्य (1022 ई.) के भी एक कन्नड़ी शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसके गुरु त्रिकालयोगी शिदालदेव तथा विमलादित्य स्वयं राजा भी जैनतीर्थ के रूप में रामगिरि की वन्दना करने गये थे।" उग्रादित्य के काल में रामगिरि अपने पूर्ण वैभव पर था । उसका समकालीन शासक वेंगिका पूर्वी चालुक्य राजा विष्णुवर्धन चतुर्थ (764-799 ई.) था । "विष्णुवर्धन चतुर्थ जैनधर्म का बड़ा भक्त था । इस काल में विजयापट्टम (विशाखापत्तनम्) जिले की रामतीर्थ या रामकोंड़ नामक पहाड़ियों पर एक भारी जैन सांस्कृतिक केन्द्र विद्यमान था । त्रिकलिंग (आंध्र । देश के वेंगिप्रदेश की समतल भूमि में स्थित यह रामगिरि पर्वत अनेक जैनगुहामन्दिरों, जिनालयों एवं अन्य धार्मिक कृतियों से सुशोभित था। अनेक विद्वान् जनमुनि वहां निवास करते थे । विविध विद्याओं एवं विषयों को उच्च शिक्षा के लिए यह संस्थान एक महान् विद्यापीठ था । वेंगि के चालुक्य नरेशों के संरक्षण में जैनाचार्य श्रीनन्दि इस विद्यापीठ के प्रधानाचार्य थे। वह आयुर्वेद आदि विमिन्न विषयों में निष्णात थे । स्वयं महाराज विष्णुवर्धन उनके चरणों की पूजा करते थे। इन आचार्य के प्रधान शिष्य उग्रादित्याचार्य थे, जो आयुर्वेद एवं चिकित्साशास्त्र के उद्भट विद्वान् थे । सन् 799 ई. के कुछ पूर्व ही उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध वैद्यक ग्रंथ कल्याणकारक की रचना की थी। ग्रंथप्रशस्ति से स्पष्ट है कि मूलग्रंथ को उन्होंने नरेश विष्णुवर्धन के ही शासनकाल और प्रश्रय में रचा था ।" "त्रिकलिंग' देश ही आजकल तैलंगाना या तिलंगाना कहलाता है, जो इस शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है । वेंगि राज्य इसी क्षेत्र के अन्तर्गत था । वेंगी राज्य की सीमा उत्तर में गोदावरी नदी दक्षिण में कृष्णा नदी पूर्व में समुद्रतट और पश्चिम में पश्चिमीघाट थी। इसकी राजधानी वेंगी नगर थी, जो इस समय पेड्डवेंगी (गोदावरी जिला) नाम से प्रसिद्ध है ।"4 1 प. कैलाशचंद्र, दक्षिण में जैनधर्म पृ.70-71 2 डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहासः एक दृष्टि, पृ. 291 3 डा. ज्योतिप्रसाद जैन, भारतीय इतिहास, एक दृष्टि, पृ. 289-90 4 नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 86 । 57 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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