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________________ 10. जनसामान्य में रोगनिरोधक उपायों और स्वस्थवृत्त-सद्वत्त के प्रचार द्वारा 'Preventive Medicine का व्यावहारिक अनुष्ठान भी जैनविद्वानों द्वारा संपन्न हुआ। 11. जैन वैद्यक-ग्रंथ, अधिक संख्या में प्रादेशिक भाषाओं में उपलब्ध है। यही लोक-जीवन के व्यवहार और प्रचार का माध्यम था । (जैन विद्वानों द्वारा कुछ ग्रंथों का भाषानुवाद व पद्यानुवाद किये जाने से अनेक आयुर्वेद के गूढ़ ग्रन्थों का सरल रूप सामने आया) । अत: जैन यति-मुनियों द्वारा उन्हीं भाषाओं में ग्रंथ लिखना आवश्यक था। फिर भी, संस्कृत में रचित जैन वैद्यक-ग्रंथों की संख्या न्यून नहीं है । इस प्रकार जैन आचार्यों और विद्वानों द्वारा वैद्यक सम्बन्धो जो रचनाएं निर्मित की गई हैं, उन पर संक्षेप में ऊपर प्रकाश डाला गया है । जैन-प्रायुर्वेद का सांस्कृतिक योगदान भारतीय संस्कृति में चिकित्सा का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित माना गया है; क्योंकि प्रसिद्ध आयुर्वेदीय ग्रन्थ 'चरकसंहिता' में लिखा है - "न हि जीवितदानाद्धि दानमन्यविशिष्यते" (च. चि. अ. I, पा 4, श्लो. 61)। अर्थात् जीवनदान से बढ़कर अन्य कोई दान नहीं है। चिकित्सा से कहीं धर्म, कहीं अर्थ (धन), कहीं मैत्री, कहीं यश और कहीं कार्य का अभ्यास ही प्राप्त होता है, अतः चिकित्सा कभी निष्फल नहीं होती "क्वचिद्धर्मः क्वचिदर्थः क्वचिन्मैत्री क्वचिद्यशः । कर्माभ्यासः क्वचिच्चैव चिकित्सा नास्ति निष्फला ।। ___(अ. ह , उत्तरतंत्र) अतएव प्रत्येक धर्म के आचार्यों और उपदेशकों ने चिकित्सा द्वारा लोकप्रभाव स्थापित करना उपयुक्त समझा । बौद्धधर्म के प्रवर्तक भगवान् बुद्ध को ‘भैषज्यगुरु'' का विशेषण प्राप्त था । विष्णु के अवतार के रूप में 'धन्वन्तरि' की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। शिव का एक अवतार 'लकुलीश' (नकुलीश) स्वयं विष और रसायन चिकित्सा के प्रवर्तक माने गये थे। (लकुलीश की मूर्ति के एक हाथ में नाकुली नामक वनस्पति और दूसरे हाथ में हरड या बिजोरा इस तथ्य के सूचक हैं)। इसी भांति, जैन तीर्थंकरों और आचार्यों ने भी चिकित्सा-कार्य को धार्मिक शिक्षा और नित्य- नैमित्तिक कार्यों के साथ प्रधानता प्रदान की। धर्म के साधनभूत शरीर को स्वस्थ रखना और रोगी होने पर रोगमुक्त करना आवश्यक है - इसलिए जैन-परम्परा में तीर्थंकरों की भी वाणी के रूप में प्रोद्भासित आगमों और अंगों के अन्तर्गत वैद्यक विद्या को प्रतिष्ठापित किया गया है। अत: यह जैन धर्मशास्त्र का अंग है । अद्यावधि प्रचलित जैन 'उपाश्रया' (उपासरा) प्रणाली में जहां जैन यति-मुनि सामान्य विद्याओं की शिक्षा, धर्माचरण का उपदेश और परम्पराओं का मार्गदर्शन करते रहे हैं, वहीं वे उपाश्रयों को चिकित्सा-केन्द्रों के रूप में समाज में प्रतिष्ठित करने में भी सफल हुए हैं। इस प्रकार सामान्यतया वैद्यकविद्या को सीखना और निःशुल्क [ 24 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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