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________________ 5. फारसी के यूनानी चिकित्साग्रंथों का हिन्दी-राजस्थानी में पद्यमय भाषानुवाद-यह कार्य अत्यंत दुरूह है । यूनानी चिकित्सा के अपने परिभाषिक शब्द हैं, जो भारतीय समाज में प्राय: अप्रचलित हैं। उनको यहां की भाषा में ढालना बहुत कठिन है । बीकानेर के जैन श्रावक मलूकचंद ने यूनानी वैद्यक के 'तिब्ब सहाबी' का 'वैद्यहुलास' नाम से 18वीं शती में पद्यानुवाद किया है । इस विधा का यह अच्छा उदाहरण है। 6. भाषा में मूलग्रन्थ की साररूप पद्यमय रचना-मूलसंस्कृत ग्रंथ के कुछ अंशों का सार लेकर राजस्थानी-हिन्दी में पद्यमय अनुवाद का कार्य भी किया गया है। इसमें पूरी रचना का अनुवाद नहीं है। इस प्रकार यह आधारित रचना के रूप में पद्य-कृति है । धर्मवर्धन या धर्मसी ने वाग्भट के अग्निचिकित्सा-प्रकरण के आधार पर 'डंभक्रिया' नामक छोटी सी रचना बनायी है (1683 ई. । 'डंभ' शब्द अग्निकर्म-(डम्भन या डांभना। के लिए है। हिन्दी-राजस्थानी में वैद्यक के भाषा- ग्रन्थों की रचना जैन विद्वानों ने अनेकविध रूपों में की है । जैन विद्वानों ने सदैव जनभाषा को अधिक मान्यता और आदर दिया। मुगलकाल में राजस्थान, गुजरात आदि क्षेत्रों में जनभाषाओं के विकास का अच्छा अवसर मिला । हिन्दी-राजस्थानी में रचनाओं के निर्माण का विस्तार सं. 1600 के बाद से ही हुआ । इससे पहले की रवनाएं, प्राकृत, अपभ्रश या प्राचीन राजस्थानी की हैं : श्वेतांबर जैन-विद्वानों का इस क्षेत्र में बहुलता से योगदान रहा है । अनेक समर्थ कवि और चिकित्सक हुए हैं । जैन-वैद्यक-ग्रन्थों की विशेषताएं यह निश्चित है कि जैन आचार्यों और विद्वानों द्वारा वैद्यक-कर्म अंगीकार किये जाने पर चिकित्सा में कुछ विशिष्ट प्रभाव परिलक्षित हुए। उनके द्वारा निर्मित वैद्यकग्रन्थों के विश्लेषण से ये प्रभाव और परिणाम विशेषताओं के रूप में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं, जो निम्न हैं1. अहिंसावादी जैनों ने शवच्छेदन-प्रणाली और शल्य-चिकित्सा को हिंसक कार्य मान कर चिकित्सा क्षेत्र में उन्हें अप्रचलित कर दिया। परिणामस्वरूप हमारा शारीर सम्बन्धी ज्ञान शनैः शनैः क्षीण होता गया और शल्यचिकित्सा का ह्रास हो गया । 2. जहां एक ओर जैन विद्वानों ने शल्यचिकित्सा का निषेध किया, वहां दूसरी ओर उन्होंने रसयोगों (पारद से निर्मित, धातुयुक्त व भस्में ) और सिद्धयोगों का बाहुल्येन उपयोग करना प्रारम्भ किया। एक समय ऐसा आया जब सब रोगों की चिकित्सा सिद्धयोगों द्वारा ही की जाने लगी, जैसा कि आजकल ऐलोपैथिक चिकित्सा में सब रोगों के लिए पेटेन्ट योग प्रयुक्त किये जा रहे हैं। नवीन सिद्धयोग और र सयोग भी प्रचलित हुए। ये सिद्धयोग स्वानुभूत और प्रायोगिक प्रत्यक्षीकृत थे । 3. भारतीय वैद्यकशास्त्र के दृष्टिकोण के आधार पर (वात-पित्त-कफ के सिद्धांतानुसार) रोग-निदान के लिए नाड़ो-परीक्षा, मूत्र-परीक्षा आदि को जैन विद्वानों ने विशेष 1 22 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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