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________________ दक्षिण भारत में तो फिर भी ईसवीय आठवीं शताब्दी तक प्राणावाय के ग्रन्थ मिलते हैं । परन्तु उत्तरी भारत में तो वर्तमान में प्राणावाय का प्रतिपादक एक भी प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता। इससे ज्ञात होता है कि यह परम्परा उत्तरी भारत में बहुत काल पहले से ही लुप्त हो गई थी । फिर ईसवीय बारहवी शताब्दी में हमें जैन श्रावकों और यति-मुनियों द्वारा निर्मित आयुर्वेदीय ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । ग्रन्थ प्राणावाय परम्परा के नहीं कहे जा सकते, क्योंकि इनमें कहीं पर भी प्राणावाय का उल्लेख नहीं है । इनमें पाये जाने वाले रोगनिदान, लक्षण, चिकित्सा आदि का वर्णन आयुर्वेद के अन्य ग्रन्थों के समान है । ये ग्रन्थ संकलनात्मक और मौलिक- दोनों प्रकार के हैं । कुछ टीका ग्रंथ हैं - जो प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों पर देशी भाषा में या संस्कृत में लिखे गये हैं । कुछ ग्रंथ पद्यमय भाषानुवाद मात्र हैं । वर्तमान में पाये जाने वाले अधिकांश ग्रंथ इस प्रकार के हैं । जैन परम्परा के अन्तर्गत श्वेताम्बरी साधुओं में यनियों और दिगम्बरी साधुओं में 'भट्टारकों' के आविर्भाव के बाद इस प्रकार का साहित्य प्रकाश में आया । यतियों और भट्टारकों ने अन्य परम्परात्मक जैन साधुओं के विपरीत स्थानविशेष में अपने निवास बनाकर जिन्हें 'उपाश्रय' (उपासरे) कहते हैं, लोकसमाज में चिकित्सा, तन्त्र-मन्त्र ( झाड़ा-फू की ) और ज्यातिषविद्या के बल पर प्रतिष्ठा प्राप्त की । जैन साधुओं मे ऐसी परम्पराएं प्रारम्भ होने के पीछे तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था कारणीभूत थी । भारतीय समाज में नाथों, शाक्तों, महायानी बौद्धों आदि का प्रभाव लौकिक विद्याओं - चिकित्सा, रसायन, जादू-टोना, झाड़ा-फू की, ज्योतिष, तन्त्र-मन्त्र आदि के कारण विशेष बढ़ता जा रहा था। ऐसे समाज के सम्मुख अपने सम्मान और मान्यता को कायम रखने हेतु श्रावकों को प्रभावित करना आवश्यक था, जो इन लौकिक विज्ञानों और विद्याओं के माध्यम से अधिक सरल और स्पष्ट था । अत: सर्वप्रथम दिगम्बर मत में भट्टारकों की परम्परा स्थापित हुई, बाद में उसी के अनुसरण पर श्वेताम्बरों में यतियों की परम्परा प्रारम्भ हुई । इनके स्थान प्राय: जैन मंदिरों में कायम हुए। ये उपासरे, जहां एक और श्रावकों और उनके बच्चों को लौकिक विद्यओं ( गणित व्याकरण आदि) की शिक्षा और धर्मोपदेश के केन्द्र थे तो वहीं दूसरी ओर चिकित्सा तन्त्र-मन्त्र और ज्योतिष आदि के स्थान भी थे । इन यतियों और भट्टारकों ने योग और तन्त्र-मन्त्र के बल पर अनेक सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं, चिकित्सा और रसायन के अद्भुत चमत्कारों से जन सामान्य को चमत्कृत और आकर्षित किया था और ज्योतिष की महान् उपलब्धियां प्राप्त की थीं । दक्षिण में भट्टारकों का प्रभाव विशेष परिलक्षित हुआ । इन्होंने 'रसायन' के क्षेत्र में विशेष योग्यता प्राप्त की। कुछ अंश में प्राण वाय-परम्परा के समय 8वीं शताब्दी तक ही रसायन चिकित्सा अर्थात् खनिज द्रव्यों और पारद के योग से निर्मित औषधियों द्वारा रोगशमन के उपाय, अधिक प्रचलित हुए । दक्षिण 'सिद्धसम्प्रदाय' में यह चिकित्सा विशेषरूप से प्रसिद्ध रही । दशवीं शताब्दी तक उत्तरी भारत के आयुर्वे दीय ग्रन्थों में धातु--सम्बन्धी चिकित्सा प्रयोग स्वल्प मिलते हैं, जबकि आठवीं शताब्दी के [ 18 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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