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________________ ज्ञान से कुछ मुनियों को अनेक प्रकार की महाविद्याएं प्राप्त होती हैं, उससे सांसारिक लोभ और मोह उत्पन्न होता है और वे वीतरागी नहीं हो पाते । लोभ-मोह को जीतने से ही श्रुतज्ञान प्राप्त होता है।' समस्त पूर्वो के उच्छिन्न होने के कारणों की मीमांसा करते हुए डॉ. हीरालाल जैन ने लिखा है - "ऐसा प्रतीत होता है कि अन्त के जिन पूर्वो में कलाओं, विद्याओं, यन्त्र-तन्त्रों व इन्द्रजालों का निरूपण था, वे सर्वप्रथम ही मुनियों के संयमरक्षा की दृष्टि से निषिद्ध हो गये। शेष पूर्वो के उच्छिन्न हो जाने का कारण यह प्रतीत होता है कि उनका जितना विषय जैन-मुनियों के लिए उपयुक्त व आवश्यक था, उतना द्वादशांग के अन्य भागों में समाविष्ट कर लिया गया था, इसलिये इन रचनाओं के पठन-पाठन में समय-शक्ति को लगाना उचित नहीं समझा गया।" 'प्राणवाय' का अवतरण और परम्परा- जैन आयुर्वेद 'प्राणावाय' का ऊपर उल्लेख किया गया है। इसका विपुल साहित्य प्राचीनकाल में अवश्य रहा होगा । अब केवल उग्रादित्याचार्य विरचित 'कल्याक कार क' नामक ग्रंथ मिलता है । प्राणावाय का अवतरण कैसे हुआ और उसकी जनसमाज तक परम्परा कैसे प्रचलित हुई ? इसका स्पष्ट वर्णन इस ग्रंथ के प्रस्तावना अंश में मिलता है। उसमें कहा गया है-प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव । आदिनाथ के समवसरण में उपस्थित होकर भरत चक्रवर्ती आदि भव्यो ने कहा कि "पहले ‘भोगभूमि' में लोग परस्पर स्नेह का बर्ताव करने वाले तथा कल्पवृक्षों से अनेक प्रकार के सुख प्राप्त करने वाले हुए । उसके बाद कालवशात् 'कर्मभूमि' का रूप हुआ। इसमें देवों ने तो दीर्घायु प्राप्त की, परन्तु मनुष्यों मे वात-पित्त-कफ के प्रकोप से भयंकर व्याधियां उत्पन्न हुई। शीत, अतिताप, हिम, वृष्टि से पीड़ित तथा कालक्रम से मिथ्या आहार-विहार के वशीभूत मनुष्यों के लिए आपही शरणागत हैं। अत: अनेकविध रोगों के भय से अति दुःखी तथा आहार व भेषज की युक्ति । सोच-समझक र उपयोग करने की विधि) को नहीं जानने वाले मनुष्यों के लिए स्वास्थ्य-रक्षण का विधान (नियमादि) तथा रोगियों के लिए चिकित्सा (क्रिया) का वर्णन कीजिये ।" इस प्रकार समस्त संसार को हितकामना से प्रमुख गणधर--पुर: सर भरत चक्रवर्ती भगवान् आदि प्रधानपुरुष से निवेदन कर चुप हो गए। इस पर भगवान् ऋषभदेव के मुख से दिव्यवाणी के रूप में शारदा देवी प्रकट हुई। इस वाणी में समस्त आयुर्वेद को सर्वप्रथम पुरुष, रोग, औषध और कालइन चार वर्गों में विभक्त करते हुए निरूपण किया गया। इस 'वस्तु-चतुष्टय' में संक्षेप से समस्त लक्षण भेद-प्रभेद आदि बताते हुए संपूर्ण विषय का प्रतिपादन हुआ । इससे भगवान् की सर्वज्ञता सूचित हुई । 1 डॉ. हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधम का योगदान, पृ. 53 । ३ उग्रादित्य कृत 'कल्याणकारक' अथ संस्कृत में है, जिसे शोलापुर (महाराष्ट्र) से सन् 1940 में पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित किया है। ३ क.क, 111-10। __ [ 15 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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