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________________ उपदेशक और रससिद्ध कवि थे। ये महाराणा राजसिंह के समय (1652-1680 ई.) में विद्यमान थे। इनका विशेष परिचय नहीं मिलता। इनके अनेक प्रयोग मिलते हैं। ये प्रयोग प्राकृत में गुटकों में संकलित हैं। इसलिए इनके लिए 'वैद्यविद्याविशारद' विरुद प्रयुक्त हुआ है। इससे इनका अच्छा चिकित्सक होना ज्ञात होता है। उनकी शिष्यपरंपरा के मुनि मोहन द्वारा लिखे गए एक पद्य से ज्ञात होता है कि उनका जन्म कुलीन विप्रवंश में हुआ था, उनके पिता का नाम गोकुल और माता का लखमादेवी था। इनका उदयपुर (मेवाड़) से घनिष्ठ संबंध रहा। महाराणा राजसिंह का मंत्री और प्रसिद्ध वीर दयालदास विजयगच्छ का उपासक होने से विनयसागरसूरि का अनुरागी था। दयालदास ने राजसमुद्र (कांकरोली) के विशाल तालाब की पाल पर पहाड़ी की चोटी पर भगवान ऋषभदेव का भव्य मन्दिर बनवाया था। महाराणा राजसिंह का काल मेवाड़ के सांस्कृतिक इतिहास में 'स्वर्णकाल' माना जाता है। इस काल में यहां साहित्य, संगीत, शिल्प और चित्रकला का विशिष्ट विकास हुआ। सं. 1725 में जब औरंगजेब ने मेवाड़ पर आक्रमण किया तो मेवाड़ को दुदिन देखने पड़े। पीतांबर का लिखा हुआ एक गुटका (योग संकलन) मिलता है, जिसका नाम 'आयुर्वेदसारसंग्रह है। परीक्षित प्रयोगों को सरल लौकिक भाषा में प्रस्तुत करना इस संकलन का प्रयोजन है। यह मेवाड़ी गद्य में लिखा गया है। 17वीं शती ई. के काल के भाषा-शास्त्रीय अध्ययन के लिए इसका बहुत महत्व है। इसमें मेवाड़ी भाषा और गद्य का अच्छा नमूना प्राप्त होता है । इसमें अनेक पारंपरिक अनुभवसिद्ध कुशल चिकित्सकों और व्यक्तियों के योग संगृहीत हैं। विशेषता यह है कि जिनसे योग प्राप्त हुए थे, उनके नाम भी निर्दिष्ट हैं जैसे 'ऋषि खिमसी, जोशी भगवानदास, ठाकुरशी नाणावाल, बालगिरि आदि । ठाकरमी नाणावाल और जोशी भगवानदास-ये दोनों उस काल के उदयपुर में विख्यात चिकित्सक और रसायन शास्त्री 'गुसांई भारती' के शिष्य थे। ये राजवैद्य थे । जोशी भगवादास, सुखवाल गोत्र के ब्राह्मण थे। इनका एक वृहद् गुटका मुनि कांतिसमार को प्राप्त हुआ था, जिसमें उन्होंने स्वयं को राजवैद्य और गोसाई भारती का शिष्य लिखा है। इस गुटके में ठाकुरसी नाणावल के भी अनेक प्रयोग दिये हैं। प्रयोगों के साथ इस प्रकार की प्राप्ति-सूचना और प्रयोगकर्ता के नाम की सूचना से उनकी विश्वसनीयता प्रमाणित होती है। 'गुसांईभारती' के अन्य शिष्य ताराचन्द सुतहृदयानन्द जोशी द्वारा विरचित आयुर्वेद का एक ग्रन्थ मिलता है । (देखें मुनि कांतिसागर का लेख 'आयुर्वेद का अज्ञात साहित्य' मिश्रीमल अभिनंदन ग्रन्थ, पृ 300-317) । हृदयानन्द मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के आश्रित थे। आयुर्वेदसारसंग्रह के सभी प्रयोग वानस्पतिक हैं, जो प्रायः सर्वत्र सरलता से प्राप्त हो जाते हैं। रोगानुसार इनका संकलन होने से लेखक की विषय संबंधी गम्भीरता का सूचक है। (146)
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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