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________________ पंजाब आदि क्षेत्रों में विहार करते हुए व्यतीत हुआ था । शाखा के लक्ष्मीकीर्ति के शिष्य थे । खरतर गच्छीय क्षेमकीर्ति 14वीं शती में खरतरगच्छ में जिनकुशलसूरि प्रभावशाली और प्रतिभावान आचार्य हुए | वे 'दादा जिनकुशलसूरि' नाम से प्रसिद्ध हैं । उनके शिष्य उपाध्याय 'विनयप्रभ' हुए । उनके शिष्य उपाध्याय 'विजयतिलक' उनके शिष्य वाचक 'क्षेमकीर्ति' हुए । क्षेमकीर्ति ने खरतरगच्छ में 'क्षेमकीर्ति क्षेमघाड़ी' नामक स्वतंत्र शाखा चलाई । यह क्षेमकीर्तिशाखा भी कहलाती है । क्षेमकीर्ति के शिष्य - परम्परा में क्रमशः उपाध्याय 'तपोरत्न' - उपाध्याय 'तेजराज ' - वाचक 'भुवनकीर्ति' - वाचक 'हर्षकु जर' - वाचक 'लब्धिमंडन' - उपाध्याय 'लक्ष्मीकीर्ति' ( इनका जन्म - नाम लक्ष्मीचंद था ) - लक्ष्मीवल्लभ हुए । लक्ष्मीवल्लभ इनका दीक्षा नाम था । संभवतः सं. 1713 से पूर्व ही आचार्य 'जिन राजसूरि' या 'जिनरत्नसूरि' ने इनको दीक्षित कर उपाध्याय 'लक्ष्मीकीर्ति' का शिष्य बनाया था । इनकी पचास से अधिक हिन्दी, राजस्थानी और संस्कृत में कृतियां मिलती हैं । काव्यों में इन्होंने अपना उपनाम 'राजकवि' लिखा है । इनका हिन्दी, राजस्थानी और संस्कृत भाषाओं पर अच्छा अधिकार था । यह अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे । इनके अनेक विषयों -काव्य, व्याकरण, छंद, भाषाशास्त्र, वैद्यक और धर्म पर लिखे हुए ग्रन्थ मिलते हैं । संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों की टीकाएं भी लिखी हैं । 2 इनकी अधिकांश रचनाएं सं. 1720 से 1750 के बीच में लिखी हुई हैं । 1 मो. द. देसाई ने 'जैन गुर्जर कविश्री' भाग 2, पृ. 243-45 पर लक्ष्मीवल्लभ की गुरु-शिष्य - परम्परा इस प्रकार दी है लक्ष्मीकीति-क्षेम ( त्र) कीति - सोमहर्ष - लक्ष्मीवल्लभ । देसाई ने इनके चार ग्रन्थों का विवरण दिया है - ( 1 ) रतनहास चौपई सं. 1725, (2) श्रमरकुमार चरित्ररास, (3) विक्रमादित्य पंचदंडरास सं. 17:7, फा. शु. - 5, (4) रात्री भोजन चोपई- सं. 1738 वं. शु. 7, बीकानेर में । इन्हीं ग्रंथों को नाहटाजी ने उपाध्याय लक्ष्मीकीर्ति के शिष्य लक्ष्मीवल्लभ की कृतियां माना है । (देखें, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग 2, पृ. 158) । मुख्य - टीका ग्रंथ 'उत्तराध्ययन सूत्रवृति', कल्पसूत्र पर 'कल्पद्र ुमकलिका', 'कुमारसंभववृति', 'धर्मोपदेशवृति' श्रादि हैं अगरचन्द नाहटा ने उनके संस्कृतकाव्य के 13, गद्यभाषा के 1, हिन्दी काव्य सिन्धी भाषा के स्तवन 3, राजस्थानी भाषा के 11, सैद्धांतीय विचार स्तवन 7 और भक्तिपद 25 का उल्लेख किया है (देखें - उनका लेख, 'राजस्थानी भाषा के दो महाकवि', राजस्थानी, 2, पृ, 52-54 1 [ 135 ] 2
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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