SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 वैद्यवल्लभ यह ग्रन्थ मूलतः संकृत में पद्यबद्ध लिखा गया था। फिर इसका, संभवतः लेखक (हस्तिरुचि) ने ही गुजराती में अनुवाद किया था। मूलग्रन्थ का रचनाकाल संवत् 1726 (1669 ई.) दिया है । 'तेषां शिशुनां हस्तिरुचिना सद्व द्यवल्लभो ग्रन्थः । रसनयनमुनिंदुवर्षे परोपकाराय विहितोयं ।।' (ग्रन्थांत) भांडारकर ओ.रि.इं पूना की हस्तलिखित प्रति (ग्रंथांक 281,599/1899-1915) के अन्त में दो पद्य अधिक मिलते हैं। उनसे ज्ञात होता है कि तपागच्छ के उदयरुचि के हितरुचि आदि अनेक शिष्य हुए जो 'उपाध्याय' पद को धारण करते थे । 'श्रीमत्तपागणांभोजनायकेन नभोमणि । प्राज्ञोदयरुचिर्नाम बभूव विदुषाग्रणी ।।55।। तस्यानेके महशिष्या हितादिरुचयो वस ।' जगन्मान्यारुपाध्यायपदस्य धारकाऽभवत् ।।56।।' अंतिम पुष्पिका इस प्रकार मिलती है-'इति श्रीकवि हस्तिरुरिकृतवेद्यवल्लभो ग्रंथसंपूर्ण॥' यह ग्रन्थ मथुरा निवासी पं. राधाचंद्र शर्मा कृत ब्रजभाषाटीका सहित वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से सं. 1978 में प्रकाशित हुआ है । इस ग्रन्थ में आठ विलास' (अध्याय) हैं -1 सर्वज्वरप्रतीकार निरूपण (28पद्य), 2 स्त्रीरोगप्रतिकार ( 41 पद्य) 3 कास-क्षय-शोफ-फिरङ्ग-वायु-पामा-दद्रु-रक्तपित्त प्रभृतिरोगप्रतीकार (30), 4 धातु-प्रमेह-मूत्रकृच्छ -लिङ्गवर्धन-वीर्यवृद्धि-बहुमूत्र प्रभृति रोगप्रतीकार (26), 5 गुद-रोगप्रतीकार (24), 6 कुष्ठावेष-गुल्म-मंदाग्निपांडु-कामलोदररोगप्रभृतिप्रतीकार(26),7शिरःकाक्षिभ्रममूर्छा-संधिवात-प्रन्थि-वातरक्त पित्तस्नायुकादिप्रभृति-प्रतीकार (42), 8 पाक-गुटिकाद्यधिकार-शेषरोगनिरूपणसन्निपात हिवका-जानुकम्पादिप्रभृति-प्रतीकार (40)। इसमें रोगानुसार योगो का संग्रह है। सब योग अनुभूत, सरल और छोटे हैं । उष्ण वात-मूत्रकच्छ में शोरा चीनी के साथ देना, क्रिमिरोग में महानिम्बपत्रस्वरस का सेवन, आदि योग द्रष्टव्य हैं । श्वेतप्रदर को स्त्रियों का 'घातुरोग' (2/17) कहा गया है । सोरे (4/16) का सूर्यक्षार नाम लिखा है । कुछ रसयोग भी दिये हैं-जैसे इच्छा भेदी, सर्व कुष्ठारि आदि । हर्षकीर्तिसूरि के 'योगचिन्तामणि' से भी कुछ योग लिये गये हैं 'मखे मखभुजां गणं किल निमन्त्र्य दक्षःपुरा' आदिवचन इसमें भी मिलते हैं । ग्रन्थ के अन्त में 'ज्व रातिसारनाशकगुटिका' 'मुरादिशाह' द्वारा निर्मित होने का उल्लेख है 'क्षौद्रण वा पत्ररसेन कायां ज्वरातिसारामयनाशिनी गुटी। रूपाग्निबलवीर्यवर्द्धनी 'मुरादिसाहेन विनिर्मिता स्वयम् ।।4011 [ 127 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy