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________________ अन्त में दस पद्यों में ग्रन्थकार की प्रशस्ति है । इससे ज्ञात होता है कि इसकी रचना कवि जगदेव ने की है। संभवतः पूर्ण किया है) । यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। हेमचंद्रसूरि या हेमचन्द्राचार्य (12वीं शती) जैन विद्वानों की परम्परा में आचार्य हेमचंद्र का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इनका समय 1092-1173 ई. माना जाता है। यह श्वेतांबर जैन आचार्य थे। इनकी अद्भुत प्रतिभा, विलक्षण प्रज्ञा और विस्तृत साहित्य-सृष्टि के कारण इनको 'कलिकालसर्वज्ञ' कहा जाता है । यह गुर्जरदेश गुजरात) के चालुक्यवंशी नरेश सिद्धराज जयसिंह (1084 से 1142 ई.) के समकालीन थे और उनके द्वारा राज्यसम्मानित हुए थे । उनके पुत्र एवं उत्तराधिकारी राजा कुमारपाल (1143 से 1174 ई.) के भी यह समकालीन रहे । कुमारपाल के मुख्य परिपोषक और उपदेशक थे। निघण्टशेष आचार्य हेमचंद्र की आयुर्वेदीय औषधि-वृक्षों और पौधों पर यह उत्तम रचना है। यह कोश है। इसमें वनौषधियों के नाम-पर्याय दिये गये हैं और 6 कांड हैं1. वृक्षकाण्ड-183 श्लोक 4. शाककाण्ड-34 श्लोक 2. गुल्मकाण्ड-104 श्लोक 5. तृणकाण्ड - 17 श्लोक 3. लताकाण्ड - 45 श्लोक 6. धान्यकाण्ड-15 श्लोक अन्त में पुष्पिका है - 'इत्याचार्यहेमचंद्र विरचिते 'निघंटुशेषे' धान्यकांड षष्ट: समाप्तः इति 'निघंटुशेषे' ग्रन्थः श्रीरस्तु कल्याणमस्तु ।' इसमें रुद्राक्ष, पुत्रजीव, चाणक्यमूलक, यावनाल आदि द्रव्यों का उल्लेख भी हुआ है। इस कोश की रचना के संबंध में आचार्य ने स्पष्ट किया है 'विहितैकार्थ--नानार्थ-देश्यशब्दसमुच्चयः । निघण्टुशेषं वक्ष्येऽहं नत्वाऽहं त्पदपङ्कजम् ।।' अर्थात् 'एकार्थकोश (अभिधानचितामणि), नानार्थकोष (अनेकार्थसंग्रह) और देश्यकोश (देशीनाममाला) की रचना करने के बाद अर्हत्-तीर्थंकर के चरणकमल को नमस्कार कर इस 'निघण्टुशेष' नामक कोश को करूगा । निघण्टुशेष वनस्पतिकोश-ग्रन्थ है। 'निघण्टु' शब्द का अर्थ वैदिक शब्दों का संग्रह है। वनस्पतियों के नाम-संग्रह की परंपरा भी भारत में प्राचीनकाल से प्रचलित रही । “निघण्टुशेष' भी इसी क्रम की एक कृति है। अमरकोश में 'वनौषधिवर्ग' पृथक् से दिया है। [ 92 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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