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________________ तीसरा भाग जब उन्हें 'न्यायविहित और अदभुत उदय सहित पाया, तो सुप्रसन्नचित्तसे जिनेन्द्रदेवकी सच्ची सेवा और भक्ति में लीन होगये।' इस भावको उन्होंने अपने इस पद्यसे ध्वनित दिया है:अत एव ते बुधनुतस्य चरितगुणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम् ॥ १३० ।-युक्त्यनुशासन । (५) एक युगवी के लिये यह कार्य ठीक भी था। मनुष्य एक टके की हांडीको ठोक बजाकर लेता है, तब धार्मिक बातोंमें भन्ध अनुसरण करना बुद्धिमत्तः नहीं कही जातक्ती। समंतभद्र जैसे विद्वान् भला यह गल्ती कैसे करते ? (६) स्वामी समन्तभद्र ने जिन दीक्षा कांची या उसके सन्निकट ही कहीं ग्रहण की थी। और कांची (Conjeevarem) ही उनके धार्मिक उद्योगोंका केन्द्र था। राजालीकथे' नामक ग्रंथ में लिखा है कि वहां वह अनेकवार पहुंचे थे। उसपर समन्तभद्रजी स्वयं कहते हैं कि “ मैं कांची का न्न साधु हूं।'' (कांच्यां न्नाटको) किन्तु फिर भी आपके गुरुकुलका कुछ भी परिचय नहीं मिलता। किस महानुभावको भापका दीक्षागुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुमा था, यह कहा नहीं जासक्तः । हां, यह विदित है कि माप ' मूलसंघ' के प्रधान माचार्यो में थे। विक्रमकी १४ वीं शताब्दी के विद्वान् कवि हस्तिमल्ल और अय्यप्पार्यने 'श्री मुरसंघ व्योमेन्दुः' विशेषण के द्वारा मामको मूलसंध रूपी माकाशका चन्द्रमा लिखा है।'
SR No.022685
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1939
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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