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________________ दूसरा भाग । जन्मके मित्र थे । असुरेंद्र पूर्वजन्म में दरिद्री था और मधु राजा था । मधुके जीवने दरिद्रमित्रको धन धान्यादि सामग्री से पूर्ण कर अपने समान बना लिया था । पूर्वजन्मकी इस कृपा के बदले में असुरेंद्रने मधुको त्रिशूलरत्न दिया था । (ज) कृतचित्राका विवाह कर रावण सेना सहित आगे बढ़ा । और कैलाश पर्वतके निकट पहुंचा । गंगाके तटपर डेरा डाला । यहां तक आने में रावणको १९ वर्षका समय लगा । यहींसे इन्द्रसे युद्ध करना था | क्योंकि इन्द्रका नलदूंवर नामक लोकपाल इसी स्थान के समीप उधिपुरमें रहता था । जब लोकपालने रावणका आना सुना तब उसने इन्द्रको दूतों द्वारा पत्र भेजा । इन्द्र पाण्डुक वनके चैत्यालयोंकी वंदनाको जा रहा था । नलदूंवर के दूत उसे मार्गही में मिल गये । इन्द्रने उत्तर दिया कि तुम नगरकी रक्षा करो | मैं 1 बहुत शीघ्र दर्शन करके लौटता हूं। तब नलदूंवरने नगरके आसपास सौ योजन ऊँचा और तीन योजन चौड़ा वज्रशाल नामक कोट बनवाया । इसकी बुर्जे सर्पाकृतिकी थीं। इसमें से अग्निके फुलिङ्गे निकलते थे । एक योजन में ऐसे यन्त्र बना दिये थे जो मनुष्योंको जीता ही निगल जाते थे । रावण मन्त्रियों सहित इस यन्त्र रचनाको तोड़नेके विचार में लगा । इधर नलदूंवर की स्त्री रावण पर आसक्त थी । उसने रावणके पास अपनी दूती भेजी । रावणने पहिले तो दूतीको यह दुष्कृत्य करनेके लिये अस्वीकार किया । परन्तु विभीषण आदि मन्त्रियोंने कहा कि राजा छलकपट करके भी अपनी कार्य सिद्धि करते हैं । अतएव नलदूँवरकी स्त्रीको यहां बुला लो | वह आप पर आसक्त है । अतएव नगरविजयका मार्ग - ७४
SR No.022684
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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