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________________ २८ दूसरा भाग। और चक्रवर्तिके सात सजीव रत्नोंमेंसे गजरत्न बना उसी समय सुभौमको हजार देवोंद्वारा रक्षिता चक्ररत्नकी प्राप्ति हुई उसके द्वारा सुभौमने परशुरामको मारा । (८) परशुरामको जीतनेके बाद नव निधिया और बाँकीके बारह रत्न उत्पन्न हुए । सुभौमने छह खंड पृथ्वीकी विजय की और भरत आदि चक्रवर्तिके समान संपत्तिका स्वामी हुआ । चक्रवर्ति सुभौमकी छनवे रानियाँ थीं। (९) एक दिन चक्रवर्तिके अमृतरसायन नामक रसोइयाने कुछ पदार्थ बड़े हर्षके साथ चक्रवर्तिको परोसा । चक्रवर्ति, उस नये पदार्थको न खाकर केवल उस पदार्थके नाम मात्र सुनते ही क्रोधित हुआ और रसोइयाके शत्रुओंके बहकाने में आकर उसे दंड दिया । रसोइया क्रोधित होकर मरा और कुछ पूर्व पुण्यके उदयसे ज्योतिषी देव हुआ । वहाँ विभंगी अवधिज्ञानसे चक्रवर्ति द्वारा प्राप्त दंडका स्मर्ण कर चक्रवर्तिको मारनेके लिये व्यापारी बनकर आया और स्वादिष्ट फल चक्रवर्तिको खिलाये । जब वे फल न रहे तव चक्रवर्तिने उससे फिर मांगे। व्यापारी रूपधारी देव कहने लगा कि वे फल अब तो मैं नहीं ला सकता क्योंकि वे तो अमुक देवताने बड़े आराधनसे प्राप्त किये थे, यदि आपकी इच्छा है तो इन फलोंके वनमें चलो वहाँ आप इच्छानुसार भक्षण कर सकेंगे। जिव्हालंपटी सुभौम उस ठग व्यापारीके साथ मंत्रियोंके रोकनेपर थी गया । इधर पुण्यक्षीण हो जानेके कारण चक्रवर्तिके घरसे चौदह रत्न और नौनिधिया नष्ट हो गईं। उधर चक्रवर्तिका जिहाज जब बीच समुद्रमें पहुंचा तब व्यापारी वेशधारी देवने
SR No.022684
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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