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________________ १६० दूसरा भाग एक दिन रावण अपनी सभ में बैठा हुआ था । शत्रुओं को रुलाने के कारण इसका नाम रावण पड़ा था । इस सभा में नारदः गये । नारदने सीताके रूपकी प्रशंसा की और कहा कि वह तुम्हारे योग्य है | जनकने तुम्हें न देकर बहुत अनुचित किया है । रावण कामांध होकर सीताके हरणका विचार करने लगा । मारीच मंत्री से सलाह पूछी परन्तु मारीचने कहा कि यह कार्य उचित नहीं । रावणने नहीं माना तब मारीचने कहा कि किसी दूतीको भेजकर उसके मनका भाव जानना चाहिये कि वह आप पर आशक्त है या नहीं । यदि वह अशक्त हो तो विना अधिक कष्टके ही बुला ली जाय । यदि नहीं तो जवरदस्ती हरण की जाय । रावणने इस उपाय के अनुसार सूर्पणखा दूतीको बनारस भेजा । उस समय राम, लक्ष्मण चित्रकूट वनमें बनक्रीड़ा कर रहे थे । रामके रूपको देख कर सूर्पणखा स्वयं मोहित हो गई । एक जगह अशोक वृक्षके नीचे सीता अपनी सखियों सहित बैठी थी। सूर्पणखा वृद्धाका रूप धारण कर उनके मनका भाव जानने आई । उस वृद्धाको देखकर दूसरी सखियां हंसने लगीं । और पूछा कि तुम कौन हो ? उसने कहा कि मैं इस बनके रक्षककी माता हूं । तुम बड़ी पुण्यवान् हो मुझे बताओ तुमने कौनसा पुण्य किया है जिससे ऐसे महा पुरुषोंकी स्त्री हुई हो, मैं भी वही पुण्य करके इनकी स्त्री बनूंगी और दूसरी स्त्रियोंसे उन्हें परांगमुख करूंगी । इस कथन पर सब हँस पड़ीं । बहुत कुछ हँसी के बाद सीताने कहा - बुढ़िया तू इस स्त्री पर्यायको अच्छी समझती है, यह तेरी भूल है । सीताने स्त्री पर्यायके दोष बताकर अपने ही पतिमें
SR No.022684
Book TitlePrachin Jain Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurajmal Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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