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________________ आर्थिक जीवन ६७ स्वर्ण उद्योग 'बृहत्कल्पभाष्य और निशीथचूर्णि' से पता चलता है कि एक पशुपालक को कहीं से स्वर्ण मिला जिसे उसने किसी स्वर्णकार को सोने के मोरंग (कुंडल) बनाने के लिये दिया। स्वर्णकार ने लोभवश ताँबे का बनाकर उस पर स्वर्ण का पानी चढ़ाकर दे दिया।१६४ इससे ज्ञात होता है कि उस समय स्वर्ण के कलापूर्ण आभूषण बनाये जाते थे। 'वसुदेवहिण्डी' से भी पता चलता है कि मथुरा के अजितसेन ने जिनपाल स्वर्णकार के पुत्र को बुलाकर आभूषण बनाने की आज्ञा दी थी । १६५ लवण उद्योग लवण (नमक) का भोजन में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। 'बृहत्कल्पभाष्य' में उल्लेख है कि नमक और मिर्च मसालों से संस्कारित भोजन स्वादिष्ट होता है । १६६ भाण्ड उद्योग मृण्भाण्ड बनाने वालों को 'कुम्हार' और बर्तन बनाने वालों को 'कोलालिक' कहा जाता था। कुम्हार मिट्टी तथा पानी को मिलाकर उसमें क्षार तथा करीब मिलाकर मृत्तिकापिण्ड तैयार करता था। फिर उसे चाक पर रखकर दण्ड और सूत्र की सहायता से आवश्यकतानुसार छोटे-बड़े बर्तन तैयार करता था । १६७ कुम्हार की पाँच प्रकार की शालाओं का उल्लेख है। जहाँ कुम्हार बर्तन बनाते थे उसे 'कम्मशाला' कहा जाता था, जहाँ जलाने के लिये तृण लकड़ी गोबर के उपले रखे जाते थे उसे 'इंधणसाला' कहा जाता था, जहाँ बने हुए बर्तन भट्ठी में पकाये जाते थे उसे 'पचनसाला' कहा जाता था और जहाँ बर्तन बनाकर एकत्रित और सुरक्षित किया जाता था उसे 'पणतसाला' कहा जाता था । १६८ सूर्यास्त के बाद दीपक जलाकर प्रकाश किया जाता था । दीपक प्राय: मिट्टी के होते थे। कुछ दीपक सारी रात जलाये जाते और कुछ थोड़े समय के लिये । १६९ स्कन्द और मुकुन्द के चैत्यों में रात्रि के समय दीपक जलाये जाते और अनेक बार कुत्तों या चूहों के द्वारा दीपक के उलट दिये जाने से देवताओं की काष्ठमयी मूर्तियों में आग लग जाती । १७० वास्तु 'बृहत्कल्पभाष्य' के प्रथम उद्देश में दुर्ग, एक या अनेक द्वारों से युक्त प्राचीर, उपाश्रय, वसति, चैत्यगृह आदि का बार-बार उल्लेख हुआ है जिससे प्रतीत होता
SR No.022680
Book TitleBruhat Kalpsutra Bhashya Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrapratap Sinh
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages146
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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