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________________ अध्याय-३ सामाजिक जीवन बृहत्कल्पसूत्रभाष्य से हमें तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था एवं जीवन निर्वाह से सम्बन्धित प्रमाणों का प्रचुर मात्रा में उल्लेख मिलता है। उस समय के लोगों के वर्ण एवं जाति, रहन-सहन, खान-पान, विवाह, संस्कार, वस्त्र एवं आभूषण, क्रीड़ा-विनोद, औषधि एवं चिकित्सा इत्यादि के विषय में सविस्तार वर्णन मिलता है। जैसा कि हमें विदित है कि सामाजिक व्यवस्था न केवल समाज के सभी पहलुओं को दर्शाती है, बल्कि सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक पक्षों को भी उजागर करती है, बृहत्कल्पसूत्रभाष्य से भी हमें इस तरह के प्रमाण प्राप्त होते हैं। वर्ण एवं जाति प्राचीन भारतीय समाज वर्णों एवं जातियों में विभाजित था। समाज का यह विभाजन सामाजिक (वंश परम्परा तथा रीति-रिवाजों के कारण), आर्थिक (आजीविका की दृष्टि से), राजनैतिक, धार्मिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों का परिणाम था। धर्मशास्त्र के आधार पर जाति-व्यवस्था के कुछ विशिष्ट गुण बताये गये हैं और इन्हीं गुणों के कारण एक जाति दूसरी जाति से भिन्न आचरण करती हुई पायी गयी है। वे गुण हैं- वंश परंपरा, जाति के भीतर ही विवाह करना एवं एक ही गोत्र में कुछ विशिष्ट सम्बन्धियों में विवाह न करना, भोजन सम्बन्धी वर्जना, व्यवसाय (आजीविका के आधार पर जाति व्यवस्था), जाति श्रेणियाँ (कुछ उच्चतम एवं कुछ निम्नतम) आदि। पी.वी. काणे ने वर्ण और जाति में अन्तर बताते हुए उल्लेख किया है कि वर्ण की धारणा वंश, संस्कृति, चरित्र (स्वभाव) एवं व्यवसाय पर आधारित है, जब कि जाति-व्यवस्था जन्म एवं अनुवांशिकता पर बल देती है और बिना कर्तव्यों का विश्लेषण किये विशेषाधिकारों पर ही आधारित है। समाज में व्यक्ति का प्रभाव और महत्त्व वर्ण के आधार पर निश्चित होता है। वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत कर्म का प्रधान स्थान है तथा प्रत्येक वर्ण का अपना विशिष्ट कर्तव्य होता है।
SR No.022680
Book TitleBruhat Kalpsutra Bhashya Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrapratap Sinh
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages146
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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