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________________ (३२) है। इस संसार में कोई भी स्वार्थ लेकर ही प्रिय होता है, कारणवश वहो प्रिय शत्रु भी बन जाता है । पारमार्थिक दृष्टि से देखने पर तो संसार में न कोई प्रिय है, न शत्रु । न माता, न पिता सभी लोग स्वार्थ में पड़े हैं। स्वार्थ की पूर्ति न होने पर पिता भी विनीत से विनीत पुत्र को शत्रु के समान देखने लगता है । इस संसारवास को सर्वथा धिक्कार है । कुमार? आप ही महात्मा हैं । आपने ही शांति मार्ग को प्राप्त किया है, आप ही विवेकी हैं और आपसे ही यह पृथिवी अलंकृत है। पिता के द्वारा अपमानित होने पर भी दूसरे अनुचित कार्य को न करते हुए आपने देश त्याग किया। यह बहुत ही अच्छा किया। स्नेहपूर्वक वार्तालाप करते-करते पाँच सात दिन बीत गए । तब समस्त सार्थ को जाने के लिए अत्यंत उत्सुक देखकर धनदेव ने विदा होने की इच्छा प्रकट की उसने कहा, कुमार ? एक तरफ आपका वियोग दुःसह है, दूसरी तरफ सार्थ जाने के लिए अत्यंत उत्सुक है, इसलिए मेरे लिए एक तरफ बाघ और एक तरफ नदीवाली बात चरितार्थ हो रही हैं, इसी कारण सज्जन लोग सज्जन संसर्ग को भी नहीं चाहते हैं क्यों कि वियोग से विदीर्ण हृदय का दूसरा औषध नहीं है, यद्यपि ऐसा वचन बोलने में मेरी जीभ समर्थ नहीं है फिर भी मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे जाने की आज्ञा दें, धनदेव की बात सुनकर कुछ विचार करके दीर्घस्वास लेकर दुःखपूर्वक सुप्रतिष्ठ इस प्रकार कहने लगा कि ऐसे स्थान पर रहते हुए हम घर पर आए हुए आपके जैसे मेहमान का क्या स्वागत कर सकते हैं ? फिर भी मैं कहता हूँ, आप मेरी प्रार्थना को अवश्य मानेंगे क्यों कि सज्जन तो दूसरों के कार्य को करनेवाले होते हैं, तब उस पल्लीपति ने फैलती हुई निर्मल किरणों से दश दिशाओं को
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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