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________________ ( २०४ ) को बताए बिना प्रतिक्रमण किए बिना मरकर धरणेंद्र बना । वही धरणेंद्र मैं आज मुनि की वंदना करने के लिए यहाँ आया हूँ, अतः कुमार ! आप चिंता न करें, मेरे द्वारा दी गई प्रज्ञप्ति आदि विद्याएं बिना साधना के आपको सिद्ध हो जाएँगी, उनके वचन सुनकर ' बड़ी कृपा' यह कहकर कुमार धरणेंद्र के चरण पर गिर पड़ा । विद्याधरों सहित पिताजी ने उनका सन्मान किया, इसके बाद वे ( धरणेंद्र) परिजनों के साथ अपने स्थान को चले गए । विद्याधरसहित चित्रवेग तथा चित्रगति ने कुमार को अपने पद पर अभिषिक्त किया । वैताढ्य पर्वत पर अब मकरकेतु विद्याधर चक्रवर्ती हो गए । जब विद्याधरों ने अपनी-अपनी कन्याएँ दीं, तब मकरकेतु ने कहा कि जब तक नरवाहन राजपुत्री सुरसुंदरी के साथ विवाह नहीं करूँगा, तब तक अन्य कन्या से विवाह नहीं करूँगा । तब भानुवेग ने कहा कि मैं अभी जाकर कुशाग्रनगराधीश नरवाहन से याचना करके आपके लिए सुरसुंदरी का वरण करता हूँ, तब मकरकेतु ने कहा कि आप जल्दी करें, मैं भी पिताजी की आज्ञा लेने के लिए हस्तिनापुर जाता हूँ, वहाँ जाकर आज तक नहीं देखे गए माता-पिता के चरणों में अपना मस्तक नवाता हूँ । ऐसा कहने पर भानुवेग आकाशमार्ग से चले, इतने में पिताजी ने मकरकेतु राजा से कहा, पुत्र ! आज ही विद्याधरों के साथ जाकर शुभमुहूर्त विकाल समय में माता-पिता काल बिता रहे थे । इतने में एक दिन उस नगर में चार ज्ञानवाले द्वादशांगवेत्ता दमघोष नामक एक चारणश्रमण ने सहस्रांबवन में समवसरण किया । उनकी वंदना करने के लिए कुमार के साथ पिताजी निकले, उनकी वंदना करके परिजनसमेत भूमि पर बैठ गए, मुनि ने भी संसार-सागर से पार करने में, पोत के समान धर्म की देशना शुरू
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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