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________________ (१६८) बड़े आडंबर के साथ जिन-पूजा करके, विद्याओं की पूजा करके, माननीयों का सन्मान करके, पूजनीयों की पूजा करके विद्याधरों को दान देकर, नृत्य, गीतवाद्य आदि अनेक उपचारों से अष्टान्हिक महोत्सव संपन्न करके पिताजी आज ही रत्नसंचय गए हैं, कार्यविशेष से मकरकेतु यहीं रह गए। सबेरे शरीर चिंता के लिए निकलने पर बाँस निकुंज के पास एक प्रधान तलवार को देखकर, उसे उठाकर, उसकी शक्ति की परीक्षा के लिए एक प्रहार देकर, वंशजाली को काट डाला । इसके बाद उसके अंदर विद्या साधन के लिए रहे हुए एक विद्याधर के मणिकुंडल भूषित मस्तक को भूमि पर गिरा देखकर, भय से चकित होकर देखा तो गंगावर्त के राजा गंधवाहन राजा का पुत्र मकरकेतु नाम का था । हाय ! प्रमादवश इस निरपराध को मैंने क्यों मार डाला ? अज्ञान को धिक्कार हैं, जिससे मैंने निरर्थक यह पाप कर्म किया । इस प्रकार अपनी निंदा करते हुए वहाँ से चलने पर दायाँ नेत्र फड़कने लगा, इतने में विषवृक्ष के नीचे आपको देखा । मनोहर सर्व अंगोंवाली आपको देखने पर उनका चित्त प्रसन्न हो गया । उन्होंने सोचा कि मरी हुई भी यह मेरे चित्त को क्यों आनंद दे रही है ? क्या यह जीती है ? या मरी है ? यह सोचकर जब उन्होंने देखा तो आपके मुख में विषखंड को देखकर उन्होंने निश्चय किया कि अत्यंत तीव्र विष की वेदना से यह मूच्छित हो गई है, अतः अपने स्थान पर ले जाकर इसकी चिकित्सा करूँ । यह सोचकर आपको अपने स्थान पर लाकर मेरे द्वारा सारी बातें जानकर मुझसे दिव्यमणि युक्त अंगूठी लाने को कहा, तब तक उन्होंने विद्याधर कुमारों से पूजा की सामग्री ठीक करने के लिए कहा और कहा कि विद्याधर वध से पाप को दूर करने के लिए शांति कर्म भी करूँगा । इतने
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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