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________________ (१६१) सकती, फिर ब्रह्मचर्यव्रत पालन आदि की कोई आवश्यकता नहीं, जो मूर्ख स्वयं नष्ट हैं, वे दूसरों को नष्ट करने के लिए गम्यागम्य का विचार करते हैं, इसलिए निःशंक होकर आप लोग विषयसुख का उपभोग करें, सरस मांस भक्षण करें, मदिरापान करें, इस प्रकार बुद्धितापसी के वचन को सुनकर मैंने कहा, पापिन् ? ऐसा मत बोलो, विद्वानों से निंदनीय तुम्हारे वचन पर कौन विश्वास करेगा ? प्रत्यक्ष प्रमाण से जीव का ग्रहण नहीं होता है, यह तुम्हारा कहना असंगत है क्यों कि जीव का अग्रहण तुम्हारे प्रत्यक्ष से अथवा सब के प्रत्यक्ष से ? यदि तुम्हारे प्रत्यक्ष से ? तो जिस-जिस वस्तु को तुम नहीं देखती उसका अभाव हो जाएगा। यदि सब के प्रत्यक्ष से ? तो पर चित्त का ज्ञान नहीं होने से जीव किसी को प्रत्यक्ष है या नहीं, इसका ज्ञान नहीं हो सकता । अनुमान प्रमाण से जीवका ज्ञान हो सकता है, प्रत्यक्ष से अतिरिक्त प्रमाण ही नहीं है यह तुम्हारा कहना भी असंगत हैं क्यों कि वीतराग सर्वज्ञों ने प्रत्यक्ष परोक्ष दो प्रमाण बतलाए हैं, रागद्वेषरहित सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र को अप्रमाण कैसे कहा जाएगा? उस सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र में जीव तथा स्वर्ग-नरकादि को सिद्ध किया गया है, परलोक सिद्ध होने पर ब्रह्मचर्यादि व्रत पालन भी आवश्यक है, गम्यागम्य विभाग भी सर्वथा शास्त्रसंमत है, इस प्रकार अनेक युक्तियों से उसके पक्ष का खंडन करने पर उसको उत्तर देने में असमर्थ होने पर मेरे पास की सखियों ने उसका बड़ा उपहास किया, जिससे वह बहुत रुष्ट होकर चली गई और सखियों के साथ मैं भी सुखपूर्वक रह रही थी, इतने में एक दिन राजा मेरी माता के घर आए, माता ने पूछा कि आप चितित क्यों दिखते - ११ -
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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