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________________ (१५५) मैं एक क्षण के लिए भी सह नहीं सकती । पिताजी से विद्याओं को प्राप्त कर उनका साधन करने के लिए मेरा भाई किसी प्रशस्त क्षेत्र में गया है । और विधिपूर्वक विद्याओं का साधन कर रहा है । अभी दो महीने हुए हैं, जब मैं उसके विरह को सहने में असमर्थ हो गई, तब पिताजी से पूछकर उसके पास चली विश्राम करने के लिए । मैं इस उद्यान में उतर गई, अभी-अभी विद्याभ्यास किया था इसलिए एक पद भूल जाने से मैं उड़ नहीं सकती हूँ, बार-बार पढ़ने पर भी वह पद स्मरण में नहीं आता है अतः मैं चिंतित हूँ कि मैं कैसे अपने स्थान पर पहुँचूँगी । तब मैंने पूछा कि तुम्हारी विद्या दूसरे के सामने बोली जा सकती है या नहीं ? उसने कहा कि बोलने में कोई हानि नहीं है, तब मैंने कहा कि बोलो, यदि पद का स्मरण हो जाएगा तो मैं कह दूँगी । उसने मेरे कान में कहा, सुनते ही मुझे पद का स्मरण आया, मैंने पूछा कि सुंदरि ? यही पद है क्या ? सुनते ही वह अत्यंत प्रसन्न हो गई, और मेरे पैरों पर गिरकर उसने मुझसे कहा कि आप मेरी गुरुणी हुईं, क्यों कि आपने मुझे विद्या दी । अत: आप अपना नाम बतलाइए । मेरी सखी ने कहा, भद्रे ? नरवाहन राजा की रत्नवती देवी की यह पुत्री अत्यंत अद्भूत गुणवाली सुरसुंदरी नाम की पुत्री है । यह विद्याधर पुत्री की पुत्री है । मेरी सखी की बात सुनकर, हर्ष से मुझे गले लगाकर उसने कहा कि मेरी माता ने मुझसे कहा कि मेरे भाई ने मेरी छोटी बहन भूमिचर राजा को दी है, तब तो चंद्रमुखि ? तुम मेरी मौसी की पुत्री हुई, यह कहकर उसने मेरा बड़ा आदर किया । मैंने उससे अपने घर चलने का आग्रह किया तब उसने कहा कि कारणवश अभी मैं भाई के पास जाऊँगी, उधर से लौटने पर मौसी का दर्शन करूँगी, यह कहकर जब वह I
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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