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________________ (९९) गिरता है । तब अमितगति ने कहा कि यदि ऐसा है तो प्रियंगुमंजरी को जाने दीजिए। मेरे पिता ने स्वीकार किया और मैं मामा के साथ, यहाँ आ गई । यहाँ आने पर कनकमाला से मिलने पर बड़ी प्रसन्नता हुई, तब से कनकमाला के विवाह की प्रतीक्षा कर रही थी। पंचमी आने पर विवाह संपन्न होने पर नाटक प्रारंभ होने पर मैंने सोचा कि कनकमाला, जो सखियों के बीच में बैठी है, अवश्य वह मेरा वल्लभ है । क्यों कि केवली का वचन कभी भी मिथ्या नहीं हो सकता । कदाचित् सूर्य पश्चिम दिशा में उदित हो जाए । फिर मैंने सोचा कि मुद्रारत्न दिखलाकर इसका निश्चय किया जाए । मैं आपके पास आई और मैंने मुद्रारत्न समेत अपना हाथ दिखलाया, फिर आपने भी जब मुद्रासहित अपना हाथ दिखलाया तो मैंने मन में निश्चय कर लिया कि मेरे ही वल्लभ हैं, आश्चर्य इस बात का हुआ कि नहवाहण से भी इनको भय क्यों नहीं लगता है ? बाद में शिरोवेदना का बहाना करके सखियों को ठगकर मैं आपको अशोक वाटिका में ले आई। यद्यपि मैं कन्या हूँ अपने वल्लभ के सामने इतना मुझे नहीं बोलना चाहिए था, फिर भी मैंने सब बातें कीं, जाति-स्मरण हो जाने से आप मुझे अत्यंत परिचित की तरह लग रहे हैं, चित्रवेग ! उसकी बात सुनकर मुझे भी जाति-स्मरण हो आया। मैंने भी अपने पूर्वचरित्र का स्मरण किया। इसके बाद उसने कहा, प्रियतम ? अब मैं क्या करूँ ? तब मैंने कहा, तुम्हारा बड़ा प्रतिष्ठित है अतः तुम अपने घर जाओं और मैं भी अब यहाँ से भाग जाऊँगा । तुम कह देना कि कमलावती कुएं में गिर गई, ऐसा कहने से चित्रवेग के ऊपर
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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