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________________ संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य जाने का निषेध करना हो तब बाहर परिष्ठापन हेतु जाने में लगते आत्मविराधनादि दोष बताना ही प्रस्तुत कहा जाता है। पूरी रात मूत्रादि को रखने में लगते संमूर्च्छिमविराधनादि दोष बताना बिलकुल प्रस्तुत नहीं कहा जाता । इसलिए यहाँ कहीं भी संमूर्छिम मनुष्य की विराधना का उल्लेख नहीं किया है। अतः संमूर्छिम मनुष्यों को विराध्य मानने की परंपरा आगमिक नहीं' - वैसी उद्घोषणा करना आशयग्राही मनीषी के लिए बिलकुल उचित नहीं। । अत एव यदि ग्लानादि कारणवश मात्रक का उपयोग किया गया हो, रात्रि के समय २-३ साधु एकसाथ बाहर परठने जाए तो कोई दोष-भय की संभावना न हो, अर्थात् बाहर कोई हिंसक प्राणी, चौर वगैरह का भय न हो, तथापि सावधानी के तौर पर २-३ साधु भगवंत मात्रक परिष्ठापन के लिए बाहर जाए तो शास्त्रकारों को कोई तकलीफ नहीं है, प्रत्युत इष्ट ही है। निरर्थक विकल्पजाल खड़ी कर के शास्त्रकार के मूलभूत आशय को छोड़ कर परिधि में भटकते रहना वह साधक मनीषी के लिए अनुचित है। * निशीथसूत्र का तारण उपर्युक्त विचारणा के अनुसार तीसरे उद्देशक के उस सूत्र के विषय में सूत्रकार महर्षि भगवंत का आशय स्पष्ट है कि जब बाहर परठने हेतु जाने में दोष हो, तकलीफ हो, उपद्रव हो तब बाहर न निकलें। परंतु जिस मात्रक में मल-मूत्र विसर्जन किए हैं उसे रख दें। संयमविराधना की अपेक्षा आत्मविराधना अधिक बड़ा दोष होने से उससे बचने के लिए छोटे दोष का सेवन अपवाद पद को आश्रय कर के बताया है। अतः “शास्त्रकारों ने संपूर्ण रात्रि मल-मूत्र को मात्रक में रखने का फरमान किया है। अतः 'संमूर्छिम मनुष्य की विराधना
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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