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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य * पंचम समिति का अंगुलीनिर्देश 隱將繼靈题麗题 "मनुष्य के शरीर में निरंतर संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति चलती ही रहती है और हमारी कायिक क्रियाओं के द्वारा वे संमूर्छिम मनुष्य वध्य तो नहीं, प्रत्युत उनको परितापना भी नहीं पहुँचती' - ऐसी अभिनव मान्यता तो समस्त (१) प्रवचन की माता स्वरूप अनर्घ्य स्थान जिसे प्राप्त है वैसी पारिष्ठापनिका नामक पंचम समिति पर कुठाराघात करने वाली ज्ञात होती है। संमूर्छिम जीवों की विराधना से बचने के लिए तो पारिष्ठापनिका समिति का अपना निजी महत्त्व प्रत्येक श्रमणश्रमणी की दिनचर्या में प्रस्थापित हुआ है। ठाणांगसूत्र में कहा है कि - “पंच समितीतो पन्नत्ताओ, तं जहा - (१) इरियासमिती, (२) भासासमिती, (३) एसणासमिती, (४) आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणासमिती, (५) उच्चार-पासवणखेल-सिंघाण-जल्लपारिठावणियासमिती।" (स्था.सू.अध्य.५/उ.३/सू.४५७) (१) समवायांग सूत्र में बताया है कि : ___ “अट्ठ पवयणमाताओ पण्णत्ताओ, तं जहा - इरियासमिई, भासासमिई, एसणासमिई, आयाण-भंडनिक्खेवणासमिई, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिई, मणगुत्ती, वतिगुत्ती, कायगुत्ती।” (स्थानक-८, सूत्र८) समिति-गुप्ति प्रवचनमाता क्यों है? उस बात को प्रस्थापित करते हुए वृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरि महाराज बताते हैं कि : "प्रवचनस्य = द्वादशाङ्गस्य तदाधारस्य वा सङ्घस्य मातर इव = जनन्य इव प्रवचनमातरः ईर्यासमित्यादयः, द्वादशाङ्गं हि ता आश्रित्य साक्षात् प्रसङ्गतो वा प्रवर्त्तते, भवति च यतो यत् प्रवर्तते तस्य तदाश्रित्य मातृकल्पतेति । सङ्घपक्षे तु यथा शिशुर्मातरममुञ्चन्नात्मलाभं लभते, एवं सङ्घस्ता अमुञ्चन् सङ्घत्वं लभते, नान्यथेतीर्यासमित्यादीनां प्रवचनमातृतेति।"
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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