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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य मनुष्य की उत्पत्ति नहीं होती। वर्तमान सभी संप्रदायों में थोड़े-बहुत अंश में, भिन्न-भिन्न मोहरों के तले चली आती अविच्छिन्न परंपरा भी यही है। * अवधातव्यम् एक बात ध्यान में रहें कि हमने अमुक मर्यादावश बहुत ही स्वल्प आगमिक संदर्भ पेश किए हैं। इसके अलावा ओर भी अनेक आगमिक सबूत मिलते हैं कि जो संमूर्छिम मनुष्य की बाबत में हमें स्पष्ट दिशानिर्देश देते हैं। प्रायः तमाम जैन संप्रदायों में संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए अनेकविध परंपराएँ – यतनाएँ प्रचलित हैं। तथा हम देख चुके कि यह परंपरा स्वरूप गंगा आज-कल की या 'कुछ एक दशकों' से चालु नहीं हुई, परंतु हज़ारों सालों से अपने अस्तित्व को बरकरार रखती हुई यह परंपरा है, कि जिसकी गंगोत्री अंततो गत्वा प्रभुवीर और अनंत तीर्थंकर ही सिद्ध होते हैं। परिणामतः वर्तमान में तो हमारा प्रयास इतना ही सीमित रहा है कि जिस वर्ग की ऐसी नई मान्यता बनी है कि - 'संमूर्छिम मनुष्य की कायिक विराधना शक्य नहीं' - उस वर्ग द्वारा पेश किए आगमिक संदर्भो का आशय स्पष्ट करना और उनके सामने नए उतने ही आगमिक गवाह प्रस्तुत करना, जिससे आगम के प्रति निष्ठा रखने वाला कोई भी वर्ग इस अनागमिक प्ररूपणा से प्रत्यावृत्त हो जाए। आगमिक बातों के ही कोश समान अन्य अनेक प्रकरण ग्रंथों के उद्धरण का तो यहाँ उल्लेख ही नहीं किया है, जो स्पष्टतया संमूर्छिम मनुष्य विषयक प्रवर्त्तमान परंपरा को प्रबल पुष्टि देने वाले हैं। . प्राचीन परंपरा को ओर एक सलामी यदि हमारा उपर्युक्त विधान अवास्तविक लगता हो तो यहाँ १०४
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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