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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी ७७ कुतर्कों में मुनिश्री स्वयं फंस गए है। मैं परस्पर विरुद्ध लिख रहा हूं, शास्त्र के विरुद्ध लिख रहा हूं, इसका भी उन्हें ख्याल नहीं रहा। वास्तविकता यह है कि पूर्वाचार्य परमर्षियोंने स्वरचित शास्त्रों में स्पष्ट कहा है कि, प्रतिक्रमण आदि सभी क्रियाओं में देव-देवी को सहायता मांगने में कोई दोष नहीं। (यह हम पूर्वमें कई जगहों पर शास्त्रपाठों और उनके भावार्थों से देख चुके हैं।) परन्तु त्रिस्तुतिक मत के लेखकश्री को यह बातें मान्य नहीं । इसलिए उन्हें कुतर्कों के सहारे अपने मत को सिद्ध करने का प्रयत्न करना पड़ा है। इसमें उन्हें विफलता ही मिली है। इन कुतर्कों में वे स्वयं फंस गए हैं।' इसी लेख में मुनिश्री लिखते हैं कि, "शुद्ध आशय रहित धर्मक्रिया कर्मक्षय में निमित्तभूत न बनकर कर्म बन्धन का कारण बन जाती है।" शुद्ध आशय किसे कहा जाता है और अशुद्ध आशय किसे कहा जाता है, इसकी शुद्ध व्याख्या समझे बिना जो लिखा जाता है वह दिखने में सच होने के बावजूद वास्तवमें सर्वथा असत्य है। 'भावानुष्ठान में देव-देवी की सहायता लेने से आशय शुद्ध नहीं रहता और आशय शुद्धता न रहे तो कर्मक्षय के बजाय कर्मबंध होता है।' यह बात (उनकी कल्पनावाले) द्रव्यानुष्ठान को भी लागू होगा। यह मुनिश्री को इष्ट है? उन्हें अनुकूल नहीं आएगी। (उनकी कल्पनावाले) द्रव्यानुष्ठान में देव-देवीकी सहायता ली जाती होने से उसमें (उनके कथनानुसार) आशय की शुद्धता नहीं रहेगी । (यह पहली आपत्ति आएगी।) इसमें आशय की शुद्धता न हो तो भी चले, यह शास्त्रविरुद्ध अर्थापत्ति से सिद्ध होता है। (यह दूसरी आपत्ति है।) इसमें आशय की शुद्धता न रहने से (मुनिश्री के कथनानुसार) वह
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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