SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी उत्तर : वह पाठ इस प्रकार है। ललितविस्तरा ग्रंथ में ' वैयावच्चगराणं०' पद की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि....... " एवमेतत्पठित्वो ( प्र०... तो ) पचितपुण्यसंभारा उचितषूपयोगफलमेतदिति ज्ञापनार्थं पठन्ति - ' वैयावच्चगराणं संतिगराणं सम्मदिट्ठिसमाहिगराणं करेमि काउस्सग्गमि' त्यादि यावद्बोसिरामि । व्याख्या पूर्ववत्; नवरं वैयावृत्त्यकराणं = प्रवचनार्थं व्यापृतभावानां यथाम्बाकुष्माण्ड्यादीनां शान्तिकराणां क्षद्रोपद्रवेषु, सम्यग्दृष्टिनां सामान्येनान्येषां समाधिकराणां स्वपरयोस्तेषामेव स्वरुपमेतदेवैषामिति वृद्धसंप्रदायः । एतेषां संबन्धिनं, सप्तम्यर्थे वा षष्ठी एतद्विषयम् = एतान् (प्र०....एतान्वा ) आश्रित्य । करोमि कायोत्सर्गमिति । कायोत्सर्गविस्तरः पूर्ववत् स्तुतिश्च । , भावार्थ : इस प्रकार ‘सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र बोलकर संगृहित किए हुए पुण्यसमूहवाला साधक 'वेयावच्चगराणं' सूत्र बोलता है। जैसे अरिहंत परमात्मा आदि लोकोत्तर शुभ भावके कारण होने से लोकोत्तर शुभ भाव के अर्थी साधक ने पूर्व में उनका मनः प्रणिधान किया था । उसी प्रकार चैत्यवंदना में अब जो वैयावच्चकारी सम्यग्दृष्टि देवका कायोत्सर्ग किया जाता है, वह भी भाववृद्धिमें कारण होने से अर्थात् लोकोत्तर कुशल परिणाम का कारण होने से अरिहंतादि योग्य में जैसे मनः प्रणिधान पूर्व में किया गया वैसे ही यहां भी उचित के विषय में उपयोग रुप मनः प्रणिधान के लिए सूत्र बोला जाता है। वैयावच्च करनेवाले, शांति करनेवाले, समाधि करनेवाले, सम्यग्दृष्टि सम्बंधी मैं कायोत्सर्ग करता हूं। | व्याख्या पूर्ववत् जानें । ‘वैयावच्चगराणं' प्रवचन (जिनशासन) की सेवा, रक्षा, प्रभावना के लिए प्रवृत्तिशील। जैसे की, शासनदेवी अंबिका, कुष्मांडी आदि, 'संतिगराणं' क्षुद्र उपद्रवों में शांति करनेवाले, सम्मदिट्ठि - सामान्यतः
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy