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________________ १९८ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी कि, जो कार्य करने के लिए श्रुतदेवता समर्थ हो, वह कार्य करने के लिए श्री अरिहंत (श्रीतीर्थंकर) परमात्मा समर्थ ही हो, ऐसा नियम देखने को नहीं मिलता । क्योंकि, वस्तु के भिन्न-भिन्न स्वभाव होते हैं। इसी कारण श्री गौतम महाराजा से प्रतिबोध प्राप्त किसान श्रीमहावीर परमात्मा के दर्शन से सम्यग्दर्शन आदि गंवाकर संसारमें भटकते हैं और यह बात आगमसिद्ध है। इसलिए जो कार्य करने के लिए जो व्यक्ति समर्थ हो, वह कार्य उसी व्यक्ति से ही होता है, दूसरे से नहीं होता । इसमें दूसरी अपेक्षा से भले ही दूसरा व्यक्ति काफी समर्थ हो तो भी उससे कार्य नहीं ही होता । इस प्रकार कलिकाल सर्वज्ञ पूज्यपाद आ.भ.श्री हेमचंद्रसूरिजी ने प्रवचन की प्रभावना की शक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से सरस्वती देवी की आराधना की थी । शास्त्रकार परमर्षियोंने इसे भी नोट किया है। प्रश्न : श्रुतदेवता की आमूला-लोल-धूली' इन (चतुर्थ) स्तुति में श्रुतदेवी से भवविरह-मोक्ष मांगा गया है। यह योग्य है ? जिसके पास जो वस्तु हो वह उसके पास से ही मांगने में औचित्य है और वही वस्तु देने में ही वे समर्थ भी है। श्रुतदेवी के पास मोक्ष नहीं, तो फिर उनसे उपरोक्त स्तुतिमें मोक्ष की मांग की गई है, यह कैसे योग्य कही जा सकती है? उत्तर : जिसके पास जो हो, वही वस्तु वह दे सकता है, ऐसा कोई नियम नहीं । क्योंकि, ऐसे नियममें व्यभिचार है। (जिस नियम को आगम वचन तथा युक्ति का समर्थन मिलता हो, वह नियम ही अव्यभिचारी सिद्ध होता है और जिस नियम को आगम वचन तथा युक्ति का समर्थन न हो, वह नियम व्यभिचारी सिद्ध होता है। __ प्रश्नकार द्वारा बताया गया नियम व्यभिचारी है । क्योंकि, श्री जिनेश्वर परमात्मा अपने पास श्रुतज्ञान न होने के बावजूद 'उप्पनेइ वा' आदि मातृकापद के प्रदान से भावश्रुतरुप द्वादशांगी की भेंट पू.गणधर भगवंतो को देते हैं।
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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