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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी १९३ इन प्रश्नो का जवाब शास्त्राधार से देने चाहिए। उपरोक्त शास्त्रपाठों में स्पष्ट कहा गया है कि, प्रथम इरियावही प्रतिक्रमण, बाद में ही सामायिक दंडक का उच्चारण कराएं। इसके बावजूद कदाग्रह के वश मुनि श्री जयानंदविजयजी ने अपनी दोनों पुस्तकों में अनेक कुतर्क करके शास्त्रकार परमर्षियों की बातों को तोड़ने मरोड़ने का विफल प्रयास किया है। यह पाठक उनकी अधंकार से प्रकाश की ओर' पुस्तक के पृष्ठ-३२,३३,३४,३५ व ३६ पर तथा 'सत्य की खोज' (नूतन संस्करण) पुस्तक के पृष्ठ-९२ से ९६ पर देख सकते हैं। • मुनि श्रीजयानंदविजयजी हीरप्रश्नोत्तर के नाम से पू.आ.भ.श्री विजय हीरसूरीश्वरजी महाराजा को इस विषयमें अपने पक्षमें खडा करते हुए 'अंधकार से प्रकाश की ओर' पुस्तक के पृष्ठ-३३ पर लिखते हैं कि, जिन मंदिर में इरियावही पडिक्कम पूर्वक्त चैत्यवंदन करने के विषयमें एकान्त नही है ऐसा लगता है। मुनिश्री यहां स्वयं भूलभूलैया में पड़ गए हैं और दूसरों को भ्रम में डाल रहे हैं। क्योंकि, पू.आ.भ.श्री विजय हीरसूरिजी ने प्रवचन सारोद्धार वृत्तिके पाठ के आधार पर जघन्य तथा मध्यम चैत्यवंदना के लिए जो विधान किया है, वह मुनिश्रीने सभी क्रियाओं के लिए लागू किया है। इसलिए मुनिश्री की शास्त्र-अनभिज्ञता स्वयं प्रकट हो जाती है। प्रवचन सारोद्धारवृत्तिमें कहा गया है कि..... "उत्कृष्ट चैत्यवंदना ऐर्यापथिकी प्रतिक्रमणपूविकैव भवति, जघन्य-मध्यमे तु चैत्यवन्दने ऐर्यापथिकीप्रतिक्रमणमन्तरेणापि भवतीति।" -उत्कृष्ट चैत्यवंदना इरियापथिकी प्रतिक्रमण पूर्वक ही होती है। परन्तु
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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