SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी १७५ लेखकश्री यदि यह कहते हों कि, विवादास्पद हो वह स्वीकार्य नहीं होता तो उनसे प्रश्न है कि, त्रिस्तुतिक मत मिथ्याग्रह से प्रवर्तित हुआ, तब उसका विरोध हुआ था। इसलिए वह मत विवादास्पद है। सौ वर्ष पहले आपके गुरुदेव ने उसका प्रारम्भ किया तब भी उसका जबरदस्त विरोध हुआ था। इसलिए वह विवादास्पद ही है और आपके कथनानुसार ही वह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। तो फिर लोगों से स्वीकार्य बनाने के लिए इतना पुरुषार्थ क्यों करते हो? शास्त्रों में पूर्वोत्तर पक्षों की रचना करके अर्थात् पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष की रचना करके उत्तरपक्ष अर्थात् शास्त्रकार श्रीने स्वसिद्धांतको सिद्ध किया होता है। वहां पूर्वपक्ष अर्थात् विरोधपक्ष था। इसलिए उत्तरपक्ष की बात सर्वथा सत्य नहीं मानी जा सकती, ऐसा आप क्यों नहीं कहते हैं ? जैनदर्शन ज्ञान को स्वतः प्रकाशक मानता हैं। नैयायिकों आदिने उसे नहीं स्वीकारा है। तो जैनदर्शन की बात सच्ची या नैयायिकों की बात सच्ची? यदि जैनदर्शन की बात सच्ची है, ऐसा कहेंगे तो जीवानुशासन वृत्तिकारश्रीने देव-देवी के कायोत्सर्ग आदि सम्बन्धी जो खुलासे दिए हैं। उन्हें त्रिस्तुतिक मत के लेखक मुनिश्री जयानंदविजयजी नहीं स्वीकारते हैं, तो आप किसे सच्चा मानेंगे? जीवानुशासन वृत्तिमें 'मोक्ष के लिए देवतादि की पूजा करें तो अयोग्य है और विघ्न निवारणादि के लिए करें तो योग्य हैं।' ऐसा जो कहा गया है उसका रहस्य यह है कि देव-देवी के पास मोक्ष नहीं होने के कारण उनके पास साक्षात् मोक्षकी मांग नहीं की जाती है। परन्तु उनसे जो मांगना है, वह मोक्षांग ही मांगना है। (अर्थात् मोक्षकी प्राप्ति में सहायक ज्ञानादि अंग ही मांगते हैं।) भौतिक चीजें तो नहीं ही मांगती है।
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy