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________________ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी इसलिए यह गाथा पाक्षिकसूत्र के अंतमें मांगलिक स्वरुप है । इसीलिए यह बोलने में कोई दोषापत्ति नहीं । आवश्यक चूर्णिमें प्रतिक्रमण विधि के साथ श्रुत क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग व स्तुति नहीं कही है। इसलिए ऐसा नहीं कहना चाहिए । ' क्या लेखक श्रीकी उपरोक्त बात आपको स्वीकार्य है ? १४४ उत्तर : लेखक श्री की उपरोक्त बात असत्य है । क्योंकि, पाक्षिकसूत्र की टीका में 'सुयदेवया...' गाथा के अर्थमें श्रुतदेवता का अर्थ जिनवाणी नहीं किया गया है, बल्कि श्रुतकी अधिष्ठातृ देवी श्रुतदेवता, यह अर्थ किया गया है। इस पाक्षिकसूत्र की टीका पाठ निम्नानुसार है। “सुयगाहा ॥ श्रुतमर्हत्प्रवचनं श्रुताधिष्ठातृ देवता श्रुतदेवता संभवति च श्रुताधिष्ठातृ देवता यदुक्तं कल्पभाष्ये ॥ सव्वं च लक्खणो वेयं समहट्टंति देवता सुत्तं च लक्खणो वेयं जेण सव्वण्णु भासियंति ॥ भगवती पूज्यतमा ज्ञानावरणीयकर्मसंघातं ज्ञानघ्नकर्मनिवहं । तेषां प्राणिनां क्षपतु क्षयं नयतु सततमनवरतं येषां किमित्याह श्रुतमेवातिगंभीरतया अतिशयरत्नप्रचुरतया सागरः समुद्रः श्रुतसागरः तस्मिन् भक्ति बहुमानो विनयश्च समस्तीति गम्यते, ननु श्रुतरुपदेवताया उक्तरूपविज्ञापना युक्ता श्रुतभक्तेः कर्मक्षयकारणत्वेन सुप्रतीतत्वात् श्रुताधिष्ठातृदेवतायास्तु व्यंतरादिप्रकारायानयुक्ता तस्याः परकर्मक्षपणेऽसमर्थत्वादिति तन्त्र श्रुताधिष्ठात्री देवतागोचरशुभप्रणिधानस्यापि स्मर्तुः कर्मक्षयहेतुत्वेनाभिहितत्वात्, तदुक्तं 'सुयदेवयाए जीए संभरणं कम्मक्खयकरं भणियं नत्थित्ति अकज्जकरीव एवमासायणातीए' किंचेहेदमेव व्याख्यानकर्तृमुचितं येषां सततं श्रुतसागरे भक्तिस्तेषां श्रुताधिष्ठातृ देवता ज्ञानावरणीयकर्मसंघातं क्षपयित्विति वाक्यार्थोपपत्तेः व्याख्यानांतरे तु श्रुतरुपदेवता श्रुते
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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