SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११५ त्रिस्तुतिक मत समीक्षा प्रश्नोत्तरी आचरणा को श्रीजिनशासन के अनुसार मानने योग्य बताई है, वैसी आचरणा के रुप में मान लिया जाए, तो भारी अनर्थ निष्पन्न हुए बिना न रहे। जो आचारणा, आचरणा के लक्षणों से युक्त हो, तथा आचरणा के एक भी लक्षण की अवमानना करनेवाली न हो, वह आचरणा श्रीजिनाज्ञा की भांति ही मान्य करने लायक है और ऐसा करने में भी वस्तुतः श्रीजिनाज्ञा की ही आराधना है। क्योंकि, आचरणा को मानना चाहिए, यह भी भगवान श्रीजिनेश्वरदेवों ने कहा है, इसलिए मान्य की जाती है और इस प्रकार विचार करके समझा जा सकता है कि, जिस आचरणामें भगवान श्रीजिनेश्वरदेवों की आज्ञा की अवमानना हो, ऐसी आचरणा को मानने की कल्पना भी भवभीरु शासनानुसारियों से नहीं हो सकती।इस उद्देश्य से भी परम उपकारी महापुरुषोंने आचरणा के विषयमें कई स्पष्टताएं की गई है। ३. उपरोक्त शास्त्रपाठों में साफ-साफ शब्दोंमें यह कहा गया है कि (१) जो आचरणा संविग्न गीतार्थादिगुणभाक् प्रमाणस्थ पुरुषने प्रवर्तमान कीन हो, ऐसी कितनी भी पुरानी आचरणाको वास्तविक स्वरुप की आचरणा नहीं कहा जा सकता। (२) संविग्नगीतार्थादिगुणभाक् प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा प्रवर्तित आचरणा भी यदि राग-द्वेष अथवा माया से रहित न हो, तो उस आचरणा को भी वास्तविक स्वरुप आचरणा नहीं कहा जा सकता। ___ (३) संविग्नगीतार्थादिगुणभाक् प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा अशठता से प्रवर्तित आचरणा भी यदि निरवद्य न हो अर्थात् सर्वथा हिंसा विरमण आदि महाव्रतरुपी मूल गुण तथा पिंडविशुद्धि आदि उत्तरगुणों का विघात करनेवाली हो, अथवा शास्त्रवचनों का विघात करनेवाली हो, तो भी उसे वास्तविक स्वरुपवाली आचरणा नहीं कहा जा सकता। (४) संविग्नगीतार्थादिगुणभाक् प्रमाणस्थ पुरुष द्वारा अशठता से प्रवर्तित एवं निरवद्य आचरणा भी यदि तत्कालीन तथाविध गीतार्थो से निषिद्ध की गई
SR No.022665
Book TitleTristutik Mat Samiksha Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherNareshbhai Navsariwale
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy