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________________ तिलकमञ्जरी का कथासार वापस आने तक यहीं रहकर गुरुजनों की सेवा करने को कहा। मेरे वन में जाने की बात को सुनकर यह मूर्छित हो गयी । चेतना आने पर प्रिय वियोग की कल्पना के दुःख से रूधें कण्ठ से बोली कि मैं भी अपके साथ वन में चलूँगी, आपके बिना मैं क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकती । बहुत समझाने पर भी यह मान नहीं रही है और चुपचाप रो रही है। 36 यह सुनकर मुनि ने नेत्र बन्द कर लिए और पुनः नेत्र खोलकर बोले- हे राजन् ! सन्तानोत्पत्ति में बाधक तुम्हारा अदृष्ट अब समाप्त ही होने वाला है। अतः धैर्य धारण करों और किञ्चित् भी चिन्ता मत करो। घर में ही रहकर मुनिजनोचित आचरण को धारण कर, अपनी राजलक्ष्मी की आराधना करो। वे शीघ्र प्रसन्न होकर तुम्हें पुत्ररूप वर प्रदान करेंगी। इसके साथ ही मुनि ने राजा को अपराजिता नामक विद्या भी दी, जिससे उसकी साधना शीघ्र पूर्ण हो जाए। इसके पश्चात् मुनि ने राजा से कहा हे मैं अभी पुष्करद्वीप से आया हूँ और अब मुझे जम्बू द्वीप के प्रधान तीर्थों के लिए जाना है। इसलिए अब मैं जाता हूँ। यह सुनकर दोनों के द्वारा स्नेह से आर्द्र नेत्रों से प्रणाम किये जाने पर विद्याधर मुनि आकाश में चले राजन् ! गए। - सम्राट् मेघवाहन ने अपने पूज्यों, बन्धुओं व मंत्रियों को बुलाकर सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया और उनके साथ विचार करके अन्त: पुर के क्रीड़ापर्वत के समीप प्रमदवन के मध्य में भव्य देवता मन्दिर का निर्माण कराया। शुभ मुहूर्त में देवी लक्ष्मी की प्रतिमा की प्रतिस्थापना करके राजा प्रतिदिन विधिपूर्वक पूजा करने लगा। एक दिन सम्राट् मेघवाहन पुण्य तिथि में देवी लक्ष्मी की सांयकालीन पूजा को विशिष्ट विधि से सम्पादित कर, सेवकों से छिपकर आदि तीर्थंकर (ऋषभदेव) के शक्रावतार नामक मन्दिर में गए। मन्दिर में प्रवेश करते ही उन्होंने भगवान ऋषभदेव को प्रणाम करके आते हुए एक दिव्य वैमानिक को देखा। मेघवाहन ने उस दिव्य पुरुष के दर्शन करके स्वयं को धन्य माना और उसकी ओर कुछ चलकर नमस्कार किया। दिव्य वैमानिक भी उनके विनयभाव को देखकर उनके पास आ गया और जल से परिपूर्ण मेघ के समान गम्भीर व मृदु वचनों में बोला - हे नरेन्द्र ! चक्रवर्ती लक्षणों से युक्त आप निश्चय ही सम्राट् मेघवाहन है। मैनें देवराज इन्द्र की सभा में मृत्युलोक के वार्ताधिकारियों के मुख से आपके
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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