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________________ 152 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य क्योंकि ऐसे काव्य में दूसरों को सामान्य सत्य की विशेष प्रतीति कराने की दृढ़ता होती है। अतः कविकर्मस्वरूप काव्य तत्त्वौचित्य का प्रतिपादक होने पर ही सहृदयों के लिए उपादेय होता है। तात्पर्य यह है कि कवि काव्य में सरसता व सरलता से सत्य प्रत्यय का उद्भावन कर सामाजिक को सुकर्मों में प्रवृत्त कर सकता है। अतः तात्त्विकता का सन्निवेश होने पर काव्य अधिक उपादेय हो जाता है। तत्त्वौचित्य का उदाहरण आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपनी रचना बौद्धावदानलतिका से दिया है। इसमें कहा गया है कि प्राणियों के पूर्वकृत कर्म कभी विनष्ट नहीं होते, वे सदैव प्राणी के साथ रहते हैं। यहाँ कर्म रूप सत्य की उद्भावना से तत्त्वौचित्य की हृदयस्पर्शी अभिव्यञ्जना हो रही है। तिलकमञ्जरी में सत्य प्रत्यय का सन्निवेश सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। वस्तुतः तिलकमञ्जरी कथा जैन आगमों को आधार बनाकर रची गई है। इसीलिए इसमें तात्त्विकता का सन्निवेश स्वभाविक ही है। हरिवाहन द्वारा इस संसार की असारता रूप तत्त्व का चिन्तन द्रष्टव्य है - अहो ! धनसम्पदाओं को क्षणभङ्गरता . ..यह सम्पूर्ण जगत् दुःख से परिपूर्ण है। यह आश्चर्यजनक है। कि इस जगत् की ऐसी शोचनीय को जानते हुए भी, इस प्रकार की अनित्यता पर विचार करते हुए भी, अनेक प्रकार की अवस्था विशेषों का अनुभव करने पर भी प्राणियों का चित्त विरक्त नहीं होता, रूपरस गन्धादि की अभिलाषा निवर्तित नही होती, विषय भोगों की इच्छा नष्ट नहीं होती, अनासक्ति प्राप्त नहीं होती। 55. 52. औचित्य सम्प्रदाय का हिन्दी काव्यशास्त्र पर प्रभाव : डॉ. चन्द्रहंस पाठक, पृ. 149 53. काव्यं हृदयसंवादि सत्यप्रत्ययनिश्चयात् । तत्त्वोचिताभिधानेन यात्युपादेयतां कवेः ।। औ. वि. चा., का. 30 दिवि भुवि फणिलोके शैशवे यौवने वा जरसि निधनकाले गर्भशय्याश्रये वा । सहगमनसहिष्णोः सर्वथा देहभाजां नहि भवति विनाशः कर्मणः प्राक्तनस्य ।। वहीं, पृ. 135 अहो विरसता संसारस्थिते:, अहो विचित्रता कर्मपरिणतानाम्, अहो यदृच्छाकारितायामभिनिवेशो विधिः, भङ्करस्वभावता विभावानाम् । ....... सर्व एवायमेवंप्रकार: संसारः । इदं तु चित्रं यदीदृश्यमप्येनवगच्छतामीदृशीमपि भावनामनित्यतां विभावयतामीदृशानापि दशाविशेषाननुभवतां न जातुचिज्जन्तूनां विरज्यतेचित्तम्, नविशीर्यतेविषयाभिलाषः नभङ्गरीभवतिभोगवाञ्छा, नाभिधावति नि:सङ्गतां बुद्धिः, नाङ्गीकरोति निव्वर्यावाधनित्यसुखमपवर्गस्थानमात्मा। ति. म., पृ. 244
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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