SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 130 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य इसी युद्ध के प्रसङ्ग में समरकेतु के द्वारा बाणों की निरन्तर वर्षा से आहत वज्रायुध क्रोधित होकर कहता है रे रे दुरात्मन् ! दुगहीत धनुर्विद्यामदाध्मातद्रविणाधम, बधान क्षणमात्रमग्रतोऽवस्थानम्। अस्थान एवं किं दृप्यसि। पश्य ममापि संप्रति शस्त्रविद्याकौशलम्। इत्युदीर्य निर्यत्पुलकमसिलताग्रहणाय दक्षिणं प्रसारितवन्बाहुम्। पृ. 91 अरे दुष्ट ! दुर्गहित धनुर्विद्या के गर्व से युक्त द्रविडदेशीयाधम, कुछ क्षणों के लिए मेरे सामने तो आ। किस कारण से स्वयं पर गर्व कर रहा है। अब मेरे शस्त्रविद्या कौशल को भी देख। यह कहकर वज्रायुध ने तलवार उठाने के लिए अपनी दक्षिण भुजा फैलाई। ___ गन्धर्वक और यक्ष प्रसंग में भी रौद्र रस की सुस्पष्ट अभिव्यञ्जना हुई है। गन्धर्वक मूर्छित मलयसुन्दरी को विमान में लिटाकर विषोपशमन औषधि के अन्वेषणार्थ आकाशमार्ग से उत्तर दिशा की ओर चलता है। मार्ग में वह जिन देवायतन के ऊपर से गुजरता है, जिससे आयतन का रक्षक यक्ष महोदर उसके विमान को रोक देता है। गन्धर्वक द्वारा बार-बार प्रार्थना किए जाने पर भी जब वह यक्ष मार्ग से नहीं हटता, तो गन्धर्वक उसे कठोर वचन बोलता है, जिससे यक्ष अत्यधिक क्रोधित हो जाता है। यक्ष महोदर की उक्तियों में बहने वाली रौद्र रस धारा का आस्वादन कीजिए - रे रे दुरात्मन्। अनात्मज्ञ ! विज्ञानरहित ! परिहतविशिष्टजनसमाचार ! महापापकारिन् ! ...अविनीतजनशासनाय प्रभुजनेन नियुक्तं सर्वदा शान्तायतनवासिनं मामपि महोदराख्यं यक्षसेनाधिपमधिक्षिपसि । रे विद्याधराधम ! न जानासि मे स्वरूपम्। यादृशोऽहं तादृगहमेव, नान्यः । ...तदरे दुराचार ! क्रूरहृदयोऽहम। न त्वमसि ...मां च करुणया पुरोभूय कृतनिषेधम् 'अपसर' इति वारंवारमविशतितस्तर्जयसि। गतोऽस्याधस्तादनेन दुश्चेष्टितेन। .... दुष्कृतिकृतान्तेन न चिरादपि प्राक्तनी प्रकृतिमासादयिष्यसि विनास्मत्स्वामिनीप्रसादम् इत्युदीर्य दत्तहुङ्कारः स्थानस्थ एव तद्विमानं कथञ्चिदुत्क्षिप्य अदृष्टपारे सरसि न्यक्षिपत्। पृ. 382-83 यहाँ पर गन्धर्वक आलम्बन विभाव है और गन्धर्वक की उक्तियाँ, जो कि क्रोधित यक्ष की क्रोधाग्नि में घी का काम करती हैं, उद्दीपन विभाव है। यक्ष की
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy