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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
समरके तुरपि विषादविच्छायवदनः शुष्काशनिनेव शिरसि ताडितस्तत्क्षणमेवाधोमुखोऽभवत्, उत्सृष्टदीर्घनिःश्वासश्च निश्चलनयनयुगलो विगलिताश्रुशीकरक्लिन्नपक्ष्मा कराङ्गष्ठनखलेखया भूतलमलिखत् । पृ. 111
यहाँ मलयसुन्दरी आलम्बन व आर्या छन्द की व्याख्या उद्दीपन विभाव है। इसी आर्या छन्द की व्याख्या से समरकेतु के हृदय में स्थित शोक उद्दीप्त हो जाता है और वह अंगूठे के नाखून से भूमि पर कुछ लिखने लगता है, यही अनुभाव है। स्मृति और विषाद यहाँ सञ्चारी भाव है।
इसी प्रकार मलयसुन्दरी का विलाप भी सामाजिक के नेत्रों को अश्रूपूरित कर देता है। जब उसे यह ज्ञात होता है कि समरकेतु व उसकी सेना को शत्रु सेना ने दीर्घ निद्रा में सुला दिया है -
शतमुखीभूतदु:खदाहा निदाघसारिदिव प्रथमजलधरासारवारिवरणबन्धेन महतापि प्रयत्नेन हेलागतं वाष्पवेगमपारयन्ती धारयितुमुन्मुक्तातितारकरुणपुत्कारा 'हा प्रसन्नमुख, हा सुरेखसर्वात्कार, हा लावण्यलवणार्णव, हा लोकलोचनसुधामर्ष, हा महाहवप्राप्तपौरुषप्रकर्ष, हा कीर्तिकुलनिकेतन, किमेकपद एव निस्नेहतां गतः। किं न पश्यसि मामस्थान एव निर्वासितां पित्रा विसर्जितां मात्रा परिहतां परिजनेनावधीरितां बन्धुभिरेकाकिनीमदृष्टप्रवासां वनवासदु:खमनुभवन्ती किमागत्य नाथ, नाश्वासयसि, कदा त्वमीदृशो जातः । पृ. 332
इसमें समरकेतु आलम्बन व उसका स्मरण उद्दीपन विभाव है। रोदन और प्रलाप अनुभाव हैं। मोह, स्मृति व दैन्यता सञ्चारी भाव हैं। मलयसुन्दरी के इस प्रलाप को सुनकर किस के नेत्र आर्द्र नहीं हो जाएंगे।
मलयसुन्दरी को जब यह ज्ञात होता है कि युद्ध में सन्धि करने के लिए उसके पिता उसका पाणिग्रहण कोशलनरेश के सेनापति वज्रायुध से करवा देगें, तो वह आत्महत्या करने का निर्णय ले लेती है और मृत्युपाश बनाकर अशोक के वृक्ष से लटक जाती है। सर्वप्रथम तो मलयसुन्दरी का यही कार्य सहृदय के हृदय को दहला देता है, उस पर बन्धुसुन्दरी का विलाप इस शोक को चरम सीमा पर पहुँचा देता है -
हा किमिदमापतितम्, किं संवृत्तम्, किमनुष्ठितं निष्ठुरप्रकृतिना दैवेन इत्यभिधाय ............ भगवन्पवन, रुद्धगलरन्ध्रवेदनाविरसाया भव समाश्वासहेतुरस्याः श्वासप्रसरदानेन। हताश चित्तयोने, चैत्रोत्सवेनैव निश्चेतनीभूतो