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________________ 118 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य इधर जब तिलकमञ्जरी को महर्षि से यह ज्ञात होता है कि हरिवाहन ही उसके पूर्वजन्म का पति ज्वलनप्रभ है तो उसे बहुत दु:ख होता है कि उसने व्यर्थ ही हरिवाहन को दुःख का भागी बना दिया। परन्तु यहाँ भी उसके दु:खों का अन्त नहीं होता, क्योंकि तभी उसे यह ज्ञात होता है कि हरिवाहन उसकी विमुखता के समाचार से दु:खी होकर कहीं चला गया है। यह सुनकर वह विमान में बैठकर उसे खोजने निकल पड़ती है। हरिवाहन के न मिलने पर वह बहुत दु:खी हो जाती है और जब उसे यह ज्ञात होता है कि अन्तिम बार हरिवाहन को विजयार्ध पर्वत की चोटी पर देखा गया था, उसके बाद क्या हुआ कुछ ज्ञात नहीं, तो उसका हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से काँप उठता है और वह भी आत्मघात करने के लिए तैयार हो जाती है। इसी बीच तिलकमञ्जरी के पिता द्वारा भेजा गया सन्देश प्रिय मिलन की आशा को पुनर्जीवित कर देता है और वह विरहिनी हरिवाहन की प्रतीक्षा करते हुए दिन बिताने लगती है। छः माह बाद ही उसका अपने प्रिय हरिवाहन से समागम होता है। __ समरकेतु और मलयसुन्दरी की विरह कथा भी कम दु:खभरी नहीं है। इनकी तो सारी कथा ही विरह वेदना से भरी हुई है। हरिवाहन ने तो तिलकमञ्जरी का चित्रमात्र देखकर उसे अपना हृदय दे दिया था। तब तक वह तिलकमञ्जरी से मिला तक नहीं था, अतः यह प्रेम आरम्भ में एक तरफा था। परन्तु समरकेतु और मलयसुन्दरी तो प्रथम भेंट मे ही एक दूसरे के हो गए थे।” परन्तु उनका यह मिलन कुछ क्षणों का ही था। इसके पश्चात् विरह की एक चौड़ी खाई है। दोनों एक-दूसरे की याद कर पीड़ित होते रहते हैं। समरकेतु निहित विरह वेदना का ज्ञान उस समय होता है जब मंजीर नामक वन्दिपुत्र आर्या छन्दबद्ध एक पत्र लेकर आता है और हरिवाहन उसका अर्थ कर देता है। उसे सुनकर समरकेतु का दुःख नवीन हो जाता है। इत्युक्तवति तस्मिन्सर्वेऽपि पाश्ववर्तिनो यथावस्थितविदितलेखार्थः समं मञ्जीरेण राजपुत्राः प्रजहषुः। अनेकधाकृतप्रतिभागुणस्तुतयश्च राजसूनोः पुनः प्रस्तुतकाव्यवस्तुविचारनिष्ठाः समरकेतुवर्जमतिष्ठन् । समरकेतुरपि विषादविच्छायवदनः शुष्काशनिनेव शिरसि ताडितस्तत्क्षणमेवाधोमुखो 18. 19. ति.म., पृ. 413-417 वही, पृ. 276-277, 282-288
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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