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________________ उत्तमकुमार प्रथम परिच्छेद गंगा तट का आनन्द लेखक - नरेन्द्रसिंह जैन गंगा नदी अपने उत्ताल तरंगों की गर्जना से तट भूमि को गुञ्जारित कर रही थी। तट पर रहे हुए वृक्षों के कुञ्ज में उनकी प्रतिध्वनि पड़ रही थी। मधुर मन्द - मन्द ध्वनि से उसमें वृद्धि होती जा रही थी । स्थल और जल के प्राणी आकर उस पर विश्राम ले, सरिता की शोभा निरख रहे थे । अनेक आर्यधर्मी श्रद्धालु यात्री आकर भागिरथि के पवित्र जल में स्नान कर रहे थे । प्यासे पथिक गण गङ्गा के शीतल जल का पान कर अगल - बगल में भ्रमण करते हुए शीतल वायु की मन्दमन्द लहरें ले रहे थे । त्यागी तपस्वी लोग तट भूमि पर पंक्ति बद्ध बैठे हुए तपस्या कर रहे थे। | इसी समय उसके तट पर रहे हुए एक सुन्दर सुशोभित महल में एक रमणी| बैठी हुई गंगानदी का अवलोकन कर रही थी और कुदरत - प्रकृति का अनुमोदन कर रही थी। यह सुन्दर रमणी सादी पोशाक में थी। इस पर भी उसके स्वाभाविक | सौन्दर्य ने उसे शृङ्गार मय कर दी थी। उसकी मनोवृत्ति में आनन्द की लहरें उछल रहीं| थी । उससे प्रतीत हो रहा था कि इस संसार की आधि-व्याधि और उपाधियों से मानों मुक्त हुई हो, वैसे दीख रही थी। उसके ललाट पर धर्म और धन का मिश्रित | तेज चमक रहा था। अधिक समय तक सरिता - तट का अवलोकन करने के बाद वह एक पुस्तक पढ़ते - पढ़ते उसमें लीन हो गयी और उसे बार - बार पढ़ने लगी । अनेक बार वांचन, करने के बाद वह आनन्दी अबला अपने मन में निम्न | प्रकार चिन्तन करने लगी : अहा ! यह संसार असार कहलाता है । तथापि इसमें से अनेक बार आनन्द भी प्राप्त होता है। यदि पुण्य की प्रबलता होती है तो यह संसार स्वर्ग के समान
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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