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________________ ' आया है । तुम्हारे पुत्री वत्सल पिता ने ऐसा अच्छा काम किया है कि, तुम विवाहित होने पर भी अभी पिता के ही धन ऐश्वर्य का उपयोग कर रही हो । बाल क्रीड़ा की भूमि का आनन्द, तुम युवावस्था में भी उठा रही हो । इतना सब कुछ होने पर भी तुम्हारा मुख चिंता की मलिन छाया से आच्छादित क्यों हो रहा है ? मन्द मुस्कान की किरणों से प्रकाशित तुम्हारा मुख चन्द्र, चिन्ता रूपी राहु से ग्रस्त देख कर मेरे मन में अत्यंत खेद होता है।" उस दासी के यह वचन श्रवण कर तिलोत्तमा ने मन्द स्वर से कहा : - | "सखि ! जिस सुख के लिए तूं मेरे भाग्य की प्रशंसा करती है, वह अब दुर्दैव से | नहीं सहा जाता; ऐसा जान पड़ता है । पितृगृह में रहकर पतिगृह के सुखों का अनुभव करने वाला मेरा यह भाग्य अब अस्थिर हो चला, ऐसा मुझे भास होता है। दासी ने उत्सुकता से पूछा - “ऐसा भास होने का क्या कारण है ? जल्दी कहो।"| । तिलोत्तमा कहने लगी - “सखि ! आज मेरे प्राणनाथ प्रातः काल उठ कर, जिन पूजा करने गये थे। अब सायङ्काल होने आया किन्तु वे अभी तक आये | ही नहीं हैं । वहाँ भी तलास करवायी परन्तु उनका कुछ भी पता नहीं लगा । वे कहाँ| गये होंगे ! इस बात की चिंता मुझे हो रही है । आज मेरे सुख का प्रकाश अस्त | होना चाहता है । मैं आज उपवासी होकर पति की प्रतीक्षा कर रही हूँ। मेरे प्राण नाथ की क्या दशा हुई होगी ? जिन पूजा के पवित्र कार्य में लगे हुए मनुष्य को किसी प्रकार की विघ्न बाधा होना असंभव सा है । शुभ कार्य में तत्पर रहने वाले और धर्म-ध्यान करने वाले प्राणी का अनिष्ट कदापि नहीं होता । ऐसे मनुष्य अन्तराय के महासागर से भी बच जाते हैं। सखि ! यह क्यों हुआ? कुछ समझ में ही नहीं आता। इष्ट वस्तु की उपासना में अनिष्ट चिंतन करना अनुचित है । परन्तु मेरा यह नारी-हृदय | ऐसी अनुचित बातें सोचे बिना नहीं रहता।" दासी ने कहा - "राजकुमारी ! यह खबर महाराज को देनी चाहिए । वह अपनी राजकीय शक्ति द्वारा तुम्हारे पति का पता लगा लेंगे - जिससे तुम्हारे हृदय की चिन्ता दूर हो जायगी।" 64
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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