SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बिना, आलसी बनकर पड़े हुए प्राणियों की दशा नहीं फिरती यदि मैं आलसी बनकर पिता के राज्य ऐश्वर्य के सहारे पड़ा रहूँ तो फिर मेरी विद्या और कला का उपयोग ही क्या ? उपकारी पिता अपने पुत्र को ज्ञानी किसलिए बनाता है ? कलाविद् क्यों बनाता है ? सिर्फ उसके पुरुषार्थ द्वारा उपयोग करने के लिए। खुद के पुरुषार्थ से अधिक, पुरुषार्थी पुत्र को प्राप्त कर पिता के हृदय को परम-सन्तोष | होता हैं। इसी लिए नीतिशास्त्र ने भी कहा है : "सर्वत्रजयनन्विच्छेत्पुत्राच्छिष्यात्पराभवम् ।" "सब जगह जय की इच्छा रखनी चाहिए; किन्तु पुत्र और शिष्य से तो हार की इच्छा ही रखना उचित है।" लव-कुश से हारे हुए राम-लक्ष्मण अत्यंत आनंदित हुए थे। इस प्रकार विचार-धारा में बहता हुआ उत्तम-कुमार मित्रों सहित नगर में आया । अनन्तर वह अपने मित्रों से अलग होकर राज महल में पहुँचा; परन्तु वही विचार माला उसके हृदय पर चल रही थी । अन्त में उसने यही मार्ग निश्चय किया कि - "मुझे अपनी कर्म-परीक्षा के लिए विदेश भ्रमण करना चाहिए । बिना विदेश गये भाग्य की परीक्षा नहीं हो सकेगी । अपने ज्ञान और कला की करामात दिखाने के लिए अपनी जन्मभूमि की अपेक्षा विदेश अच्छा होता है । सिर फूल वह चढ़ा, जो चमन से निकला। इज्जत उसे मिली, जो वतन से निकला॥ परन्तु, यदि किसी भाँति मेरे इस विचार को पिताजी जान लेंगे तो वे मुझे कदापि जाने न देंगे । इसलिए खडग को अपना साथी बनाकर, यहाँ| से चुप चाप निकल चलना चाहिए-यही उत्तम उपाय है।" ऐसा निश्चय कर राजपुत्र उसी रात को वाराणसी नगरी छोड़कर चल दिया। पाठकों ! इस विषय पर थोड़ा विचार करके उसमें से कुछ शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । प्रत्येक विद्वान, कला विशारद युवक को अपने कर्म की परीक्षा 10
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy