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________________ के कार्य में नाना प्रकार की विघ्न-बाधाएँ आती रहती हैं । धर्म कार्य करने में जब प्रमाद आलस आदि दुर्गुण विघ्न करते हैं, तब इन्हें त्यागकर एकाग्र मन से आपको आहत धर्म की उपासना करनी चाहिए, और उसमें पूर्ण श्रद्धा करनी चाहिए। जो मनुष्य हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, ब्रह्मचर्य का भंग करता है, और परिग्रह का संचय करता है, वह दुर्गति से प्रेम करता है, ऐसा निश्चय समझना चाहिए । जो मनुष्य क्रोधादि चार मनोविकारों का त्याग करता है और इन्द्रियों पर अपना अधिकार रखता है, उसे जैन धर्म सुलभ हो जाता है । इस संसार में मातापिता, पुत्र-पुत्री और स्त्री आदि जो सगे-सम्बन्धी हैं, वे सब मतलब के साथी हैं । जीव जब दुर्गति में पड़ता है तो इनमें से कोई भी उसे नहीं बचा सकता । सब स्वार्थ के सम्बन्धी है - सब का प्रेम स्वार्थपूर्ण है । जब उनका स्वार्थ नहीं बन पाता तब उसी समय प्रेम नष्ट हो जाता है। जो प्राणी "यह मेरी सम्पत्ति है, यह मेरा घर है, यह मेरा परिवार है।" इत्यादि ममता में फँसा रहता है, उसे मूर्ख समझना चाहिए । क्योंकि परलोक जाते समय कोई भी जीव के साथ नहीं जाता, अकेले जीव को ही जाना पड़ता है । इसलिए, इन सांसारिक उपाधियों का त्यागकर आप लोगों को धर्म की शरण लेनी चाहिए । धर्म के सिवाय प्राणी के लिए अन्य कोई भी सच्चा सहायक नहीं है।" केवली भगवान् का यह उपदेश सुनकर बैठे हुए सभी सज्जन बहुत ही प्रसन्न हुए । उपदेश समाप्त होने के बाद महाराजा उत्तमकुमार ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की "भगवान् ! कृपा कर मुझे बतलाइए कि, मैं समुद्र में क्यों पड़ा था ? धीवर के घर क्यों कैसे रहा ? वेश्या के घर तोता बनकर मुझे क्यों रहना पड़ा ? और अन्त में मुझे यह महान् सम्पत्ति क्यों कैसे मिली?" महाराज उत्तमकुमार के इन प्रश्नों को सुनकर केवली भगवान् ने मधुर एवम् गंभीर स्वर में कहा - "राजन् ! कोई भी प्राणी किये हुए कर्मो के फल भोगे बिना छूट नहीं सकता । जैसे कर्म किये जाते हैं वैसा ही फल प्राप्त होता है। तुम्हारा पूर्व जन्म कैसा था - उसे ध्यान पूर्वक सुनो 103
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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