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________________ कुलदीपक, सिर मौर है, तूं सबका सिरताज ॥ जो चाहे मुझको सुखी, अरु चाहे कल्याण । तो जल्दी आन यहाँ, मिलें प्राण में प्राण ॥ भाग्यवंत तूं पुत्र है, विनयी अरु गुणवंत । मात पिता को त्याग कर, कैसे हुआ निश्चित ॥ ज्यादा क्या तुझको लिखू, तूं समजत सब बात । थोड़े में समझो बहुत, आन मिलो प्रिय तात ॥ इस कविता को पढ़ते पढ़ते उत्तमकुमार के नेत्रों से आँसू बह चले । वह | तत्काल अपने तीर्थरूपी माता पिता से मिलने के लिए व्याकुल हो उठा । उसके दुखी हृदय में विचार हुआ कि - "मैं अपने माता पिता की आज्ञा लिये बिना ही अचानक इधर चला आया, यह मैंने बड़ा ही दुस्साहस का काम किया है । अतः मैं अपने जन्म देनेवाले माता पिता के लिए दुःख रूप हो गया हूँ। अपने महान् उपकारी माता पिता के लिए दुःखरूप होनेवाली संतान को धिक्कार है। अब मुझे शीघ्र ही अपने पूज्य माता पिता के दर्शन कर, उनके हृदय को संतोष देकर, अपने पुत्र जीवन को सफल करना चाहिए।" यह सोचकर उत्तमकुमार एक बड़ी भारी | सेना लिए वाराणसी राज्य की ओर प्रस्थान करने लगा। उत्तमकुमार अपनी बड़ी सेना साथ लिये चित्रकूट पर्वत के पास पहुँचा । वहां के राजा महीसेन ने सुना कि - "मोटपल्ली नगर का राजा उत्तमकुमार एक भारी सेना लिये आ रहा है।" यह सुनकर राजा महीसेन बड़े ठाठ बाठ से एक बड़ी भारी सेना लिये उसके सामने स्वागत के लिये गया । उसने उत्तमकुमार को प्रणाम करके कहा - "राजेन्द्र ! मैं बहुत समय से आपसे मिलने की राह देख रहा | था । आज आपके पधारने की खबर सुनकर बड़ी प्रसन्नता से आगे मिलने आया हूँ। यह मेरा राज्य और सब सम्पत्ति आप स्वीकार करें और मुझे संयम-राज्य करने की आज्ञा दें । आप मुझे इस उपाधिरूप राज्य से मुक्त कीजिए, मैं आपका अत्यन्त आभार मानूँगा । मुझे आशा है आप कृपा करके, मेरे शेष जीवन को 98
SR No.022663
Book TitleUttamkumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Jain, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages116
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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