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________________ तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन 33 जब मैं सोलह वर्ष की हुई तो रात्रि को शयन करते हुए एक दिन तीव्र ध्वनि से मेरी निद्रा भंग हो गई । आंख खोलने पर मैंने अपने आपको जैन मंदिर के एक कोने में अनेक राजकन्याओं से घिरा हुआ पाया। पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह दक्षिण समुद्र में पंचर्शल द्वीप पर स्थित महावीर का मंदिर था, जिनके अभिषेकमंगल के लिये राजा विचित्रवीर्य के नेतृत्व में समस्त विद्याधर एकत्रित हुए थे, उसी अवसर पर नृत्य करने के लिये अनेक राजकन्याओं का अपहरण किया गया था। मेरे नृत्य-कौशल से राजा विचित्रवीर्य अत्यधिक प्रभावित हुए और मुझ से वार्तालाप करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी पुत्री गन्धर्वदत्ता ही मेरी माता है, जो शैशवकाल में ही नगर विप्लव के समय अपने पिता से वियुक्त हो गई थी और त्रिकालदर्शी मुनि महायश ने यह भविष्यवाणी की थी कि उसकी कन्या को योग्य वर की प्राप्ति होने पर ही उसका अपने पिता से पुनः समागम होगा । विचित्रवीर्य ने तुरन्त गन्धर्वक की माता चित्रलेखा को इस संदेह की पुष्टि करने का कार्य सौंप दिया। प्रात:काल होने पर विचित्रवीर्य ने सुवेल पर्वत पर स्थित अपनी राजधानी को प्रस्थान किया। इसके पश्चात् मैंने भगवान महावीर की मूर्ति के दर्शन किये तथा समुद्र की शोभा देखने के लिये प्राकार-भित्ति पर चढ़ी । वहीं मैंने नाव में बैठे हुए एक अष्टादश वर्षीय राजकुमार को देखा और देखते ही उस पर आसक्त हो गई। उसके मित्र तारक ने उसका परिचय देते हुए कहा कि यह सिंहलदेश के नरेश चन्द्रकेतु का पुत्र समरकेतु है. जो द्वीपान्तर-विजय के प्रसंग से यहां आया है। तारक ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक मेरे अन्तःकरण के ही समान दुर्गम उस मंदिर का मार्ग पूछा । मैंने समरकेतु को कामात देखकर, उसे कुछ देर प्रतीक्षा करने के लिये कहा । तब तारक ने वक्रोक्ति द्वारा नाव के व्यपदेश से अपने मित्र समरकेतु की ओर से मुझ से प्रणय-निवेदन किया। उसी समय तपनवेग नामक सेवक ने आकर मुझे भगवान महावीर को अर्पित की गई पुष्पमाला और हरिचन्दन लाकर दिया तथा उसके साथ आये पुजारी बालक ने नृत्य के समय मेरी कांची में गिरे हुए पद्मराग मणि को ग्रहण करने के लिये कहा । मैंने कहा कि नायक (समरकेतु तथा मणि) को स्वीकार कर लिया गया है किन्तु उसके अपने स्थान कांची (रसना तथा नगरी) पहुंचने पर ही ग्रहण किया जायेगा । यह कहकर उसके हाथ से पुष्पमाला लेकर समुद्र-पूजा के व्यपदेस से उस राजकुमार के गले में डाल दी, किन्तु समरकेतु ने जैसे ही मेरे दिए हुए चन्दन का तिलक लगाया, उसके प्रभाव से सामने होते हुए भी मैं उसकी दृष्टि से ओझल हो गयी। वह इस आकस्मिक आघात को सहन नहीं कर सका और समुद्र में कूद गया। उसके शोक से विह्वल
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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