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________________ धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें की टीका रची थी । 1 धनपाल ने स्वयं अपनी टीका में अपने भ्राता शोभन का परिचय देते हुए टीका- रचना के उद्देश्य का वर्णन किया है । कवि धनपाल ने, स्वर्ग जाते हुए अपने अनुज की इस उज्जवल कृति की अपनी बुद्धि के अनुसार वृत्ति रचकर उसे अलंकृत किया | 2 6. वीरस्तुति (विरुद्धवचनीय) या वीरथुई प्रभावकचरित के अनुसार भोज से अपमानित होकर धनपाल धारानगरी से पश्चिम दिशा की ओर चला तथा सत्यपुर (वर्तमान में सांचोर जिला) नामक नगर पहुंचा। वहां महावीर स्वामी के चैत्य को देखा तथा हर्षित होकर विरोधाभास अलंकार से मंडित "देव निम्मल" से प्रारम्भ होने वाली इस प्राकृत स्तुति की रचना की 14 विरोधाभास अलंकार धनपाल को इतना प्रिय था कि उन्होंने 30 पद्यों की यह पूर्ण स्तुति ही इस अलंकार में रच डाली । प्राकृत में इस प्रकार की यह 1. 2. 3. 4. तदीयदृष्टिसंगेन तत्क्षणं शोभनो ज्वरात् । आससाद परं लोकं संघस्यामाग्यतः कृती ॥319।। तासां जिनस्तुतीनां च सिद्धसारस्वतः कविः टीकां चकार सौदर्यस्नेहं चित्ते वहन् दृढम् || 320|| - प्रभावकचरित, पृ० 150 एतां यथामति विमृश्य निजानुजस्य तस्योज्जवलं कृतिमलंकृतवान् स्ववृत्या । अभ्यर्थितो विदधता त्रिदिवप्रयाणं तेनैव साम्प्रतकविर्धन पालनामा || - स्तुतिचतुविशंतिका टीका पद्य 7, पृ० 2 (क) जैन साहित्य संशोधक, अंक 3, खंड 3 (ख) देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार - 83, 1933 अथापमानपूर्णोऽयमुच्चाल ततः पुरः । मानाद्विनाकृताः सन्तः सन्तिष्ठन्ते न कर्हिचित् ॥ पश्चिमां दिशमाश्रित्थ परिस्पन्दं विनाचलत् । प्राप सत्यपुरं नाम पुरं पौश्जमोत्तरम् ॥ तत्र श्रीमन्महावीरचैत्ये नित्ये पदे इव । दृष्टे स परमानन्दमाससाद विदांवरः ।। नमस्कृत्य स्तुतिं तत्र विरोधामाससंस्कृताम् । चकार प्राकृतां "देव निम्मले" त्यादि साहित च ॥ 21 - प्रभावकचरित, महेन्द्रसूरिचरित, To 146
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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