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________________ जैन चरित काव्य : उद्भव एवं विकास ५ 1 जैन काव्य साहित्य की ईसा की प्रथम शताब्दी से पाँचवी शताब्दी तक कतिपय कृतियाँ उल्लेख रूप में ही मिलती हैं । पाँचवी से दसवीं तक सर्वाङ्ग पूर्ण विकसित एवं आकर ग्रन्थों के रूप में ऐसी विशाल रचनायें मिलती हैं, जिन्हें हम प्रतिनिधि रचनायें कह सकते हैं । किन्तु ये अंगुलियों पर गिनने लायक हैं । परन्तु ग्यारहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक एतद्विषयक रचनाएं विशाल गंगा की धारा के समान प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती हैं और अब भी मन्द एवं क्षीण धारा के रूप में प्रवाहित हैं । डा० जयकुमार जैन ने जैन चरितकाव्यों के आन्तरिक अनुशीलन के आधार पर कुछ विशेषताओं का निर्देश किया है, जो इस प्रकार है - (१) जैन चरितकाव्यों में नायक, प्रतिनायक और उनसे संबद्ध प्रमुख व्यक्तियों के अनेक जन्म-जन्मान्तरों का वर्णन किया जाता है। इनमें नायक को उत्तरोत्तर उन्नत और प्रतिनायक को जन्म जन्मान्तर में नायक से शत्रुता करते हुए दिखाया जाता है । अन्ततः प्रतिनायक नायक के समक्ष अपनी हार स्वीकार करता है और नायक के मार्ग पर चलने लगता है । किन्तु ऐतिहासिक चरितकाव्यों में नायक के जन्म-जन्मान्तर का वर्णन नहीं किया जाता है । (२) इन काव्यों का आधार प्रायः जैन पौराणिक आख्यान हैं । अवान्तर कथानकों में अनेक काल्पनिक या लोकप्रसिद्ध कथाओं का भी समावेश हुआ है परन्तु ऐतिहासिक चरितकाव्यों समय, स्थान आदि के निश्चित तथ्यों को प्रकट करने के कारण कल्पना को अधिक स्थान नहीं मिल सका है । (३) जैन चरितकाव्यों का अन्तिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है । अतएव इन काव्यों में भोग पर त्याग की विजय दिखलायी जाती है । (४) भारत का प्राचीन साहित्य धार्मिक एवं दार्शनिक भावनाओं से ओतप्रोत पाया जाता है । सम्पूर्ण वैदिक साहित्य इसका साक्षी है । अतएव इन काव्यों में भी प्रसंगतः दार्शनिक एवं धार्मिक तत्त्वों का समावेश पाया जाता है। इसी कारण कहीं-कहीं कोई काव्य नीरस भी लगने लगता है । (५) जैन चरितकाव्यों में प्रायः अंगीरस शान्त है । किन्तु श्रृंगार रस के स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों पक्षों एवं अन्य सभी रसों का यथेष्ट वर्णन इन काव्यों में हुआ है I (६) जैन चरितकाव्यों में प्रायः ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्तियाँ लिखी गई हैं । इन प्रशस्तियों में ग्रन्थ रचना का समय, तत्कालीन राजा एवं अन्य ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख कर दिया गया है । इन ग्रन्थों में मंगलाचरण में भी कहीं-कहीं पूर्व कवियों की प्रशस्ति प्राप्त होती है और कहीं-कहीं तो यह कालानुक्रमिक भी है। अतएव जैन चरितकाव्यों के मंगलाचरण और अन्तिम १. पार्श्वनाथचरित का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ० ४-५
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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