SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण स्वतन्त्रता के इच्छुक मुमुक्षु के लिए ये दोनों हेय हैं। मोक्ष का हेतु रत्नत्रयी सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र हैं, जो व्यक्ति इस तत्त्व को नहीं जानता वही पुण्य को उपादेय और पाप को हेय मानता है। निश्चय - दृष्टि से ये दोनों हेय हैं। 194 पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से बुद्धि का नाश, बुद्धि नाश से पाप होता है इसलिए हमें पुण्य नहीं चाहिए। यह क्रम उन्हीं के लिए है, जो पुण्य की आकांक्षा ( निदान) पूर्वक तप तपने वाले हैं। आत्म शुद्धि के लिए तप तपने वालों के अवांछित पुण्य का आकर्षण होता है उनके लिए यह क्रम नहीं है । वह उन्हें बुद्धि विनाश की ओर नहीं ले जाता । पुण्य काम्य नहीं है। वे पुण्य किस काम के, जो राज्य देकर जीव को दुःख परम्परा की ओर ढकेल दें। आत्म-दर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति मर जाये, यह अच्छा है, किन्तु आत्म-दर्शन से विमुख होकर पुण्य चाहे वह अच्छा नहीं है। - पुण्य की इच्छा करने से पाप का बन्ध होता है। आगम कहते हैं इहलोक परलोक, पूजा श्लाघा आदि के लिए धर्म न करो केवल आत्म-शुद्धि के लिए धर्म करो। मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि आत्म-साधक का लक्ष्य मोक्ष होता है और पुण्य संसार भ्रमण के हेतु हैं। भगवान महावीर ने कहा है- पुण्य और पाप इन दोनों के क्षय से मुक्ति मिलती है। जीव शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करता है। गीता भी यही कहती है बुद्धिमान् सुकृत और दुष्कृत दोनों को छोड़ देता है। आश्रव, बन्ध, पुण्य और पाप ये संसार भ्रमण के हेतु हैं क्योंकि पुण्य से भोग मिलते हैं। जो पुण्य की इच्छा करता है, वह भोग की इच्छा करता है। भोग की इच्छा से संसार बढ़ता है। - पुण्य और पाप के परमाणुओं के आर्कषण हेतु अलग-अलग है। एक ही हेतु से दोनों के परमाणुओं का आकर्षण नहीं होता । आत्मा के परिणाम या तो शुभ होते हैं या अशुभ | किन्तु शुभ और अशुभ दोनों एक साथ नहीं होते । उत्तराध्ययन सूत्र (29.11 ) में गौतम ने पूछा - भगवन! श्रमण को वन्दन करने से क्या लाभ होता है। भगवान ने कहा गौतम ! श्रमण को वन्दन करने वाला नीच - गोत्र कर्म का क्षय करता है और उच्च - गोत्र कर्म का बन्ध करता है। एक शुभ प्रवृत्ति से पाप कर्म का क्षय और पुण्य कर्म का बन्ध- इन दोनों कार्यों की निष्पत्ति होती है। तर्कमान्य से यह मान्यता अधिक संगत लगती है। —
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy