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________________ 171 आदिपुराण में अजीव तत्त्व विमर्श 1. अवसर्पिणी काल के छह भेद हैं - (क) सुषमा सुषमा (ख) सुषमा (ग) सुषमा दु:षमा (घ) दु:षमा सुषमा (ङ) दुःषमा (च) अतिदुःषमा 2. उत्सर्पिणी काल के छह भेद हैं - (क) दुःषमा दुःषमा (ख) दुःषमा (ग) दु:षमा. सुषमा (घ) सुषमा दु:षमा (ङ) सुषमा (च) सुषमा सुषमा 23 ___ "समा" काल के विभाग को कहते हैं तथा "सु" और "दुर' उपसर्ग से अच्छे और बुरे अर्थ में आते हैं। सु और दुर उपसर्गों को पृथक्-पृथक् समा के साथ जोड़ देने तथा व्याकरण के नियमानुसार स को ष कर देने से सुषमा और दु:षमा शब्दों की सिद्धि होती है। जिनका अर्थ क्रम से अच्छा काल और बुराकाल होता है। इस तरह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छहों भेद सार्थक नाम वाले उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामक दोनों ही भेद कालचक्र के परिभ्रमण से अपने छहों कालों के साथ-साथ कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष की तरह घूमते रहते हैं।124 काल की इस ह्रासोन्मुखी गति को अवसर्पिणी और विकासोन्मुखी गति को उत्सर्पिणी कहा जाता है। 1. अवसर्पिणी काल के भेदों का स्वरूप (क) सुषमा सुषमा काल का स्वरूप - भरतक्षेत्र के मध्यवर्ती आर्यखण्ड में अवसर्पिणी का पहला भेद सुषमा सुषमा नाम का काल था। इस प्रथम काल में बहुत अधिक सुख ही सुख था। इस काल के सुख का हम अनुमान भी नहीं कर सकते। कोई उपमा भी नहीं दे सकते। अथाह सुखों के भण्डार होने से इस काल का नाम सुषमा-सुषमा काल पड़ा। उस काल का परिमाण चार क्रोड़ा क्रोड़ी सागर था। 25 उस समय मनुष्यों की आयु तीन पल्य की होती थी और शरीर की ऊँचाई छः हजार धनुष की थी। 26 उनका शरीर वज्र के समान था और सौन्दर्य स्वर्ण के समान शोभायमान था। मुकुट, कुण्डल, हार, करधनी, कड़ा, बाजूबन्द और यज्ञोपवीत आभूषणों को वे हमेशा धारण करते थे। वे लोग स्वर्ग में देवों के समान अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहते थे। 27 वे पुरुष बड़े बलवान्, धीर-वीर, बड़े तेजस्वी, प्रतापी, सामर्थ्यवान्, पुण्यशाली होते थे।।28 वे पुण्यवान् आत्माएँ तीन दिन बाद भोजन ग्रहण करती थीं। कल्पवृक्ष से उत्पन्न बदरी फल के समान
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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