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________________ 135 आदिपुराण में नरक-स्वर्ग विमर्श नवग्रैवेयक की आयु की स्थिति नाम जघन्य उत्कृष्ट प्रथम ग्रैवेयक 22 सागरोपम 23 सागरोपम द्वितीय ग्रैवेयक 23 सागरोपम 24 सागरोपम तृतीय ग्रैवेयक 24 सागरोपम 25 सागरोपम चतुर्थ ग्रैवेयक 25 सागरोपम 26 सागरोपम पञ्चम ग्रैवेयक 26 सागरोपम 27 सागरोपम षष्ठ ग्रैवेयक 27 सागरोपम 28 सागरोपम सप्तम ग्रैवेयक 28 सागरोपम 29 सागरोपम अष्ठम ग्रैवेयक 29 सागरोपम 30 सागरोपम नवम ग्रैवेयक 30 सागरोपम 31 सागरोपम158 सौधर्म देवलोक से नवग्रैवेयक अर्थात् इक्कीसवें देवलोक तक के देवों में तीनों दृष्टियां (सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि) होती हैं।।58अ शरीर परिमाण नव ग्रैवेयक देवलोक के देवों के शरीर का परिमाण दो हाथ का है।159 लेश्या नवग्रैवेयक देवों में शुक्ल लेश्या होती है।60 तेरहवें स्वर्ग में जाने का कारण जीव रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) रूपी सम्पदा की आराधना करने वाला और तप करने वाला अर्थात् रत्नत्रय का आराधक और तपस्वी तेरहवें स्वर्ग अर्थात् नीच के ग्रैवेयक में उत्पन्न होकर अहमिन्द्र पद को प्राप्त करता है। तप से महान फल की प्राप्ति होती है।।61 21-26. पाँच अनुत्तर __ पाँचों विमान सब विमानों में उत्कृष्ट और सबसे ऊपर होने के कारण अर्थात् जिससे ऊपर कोई विमान न हो वे अनुत्तर विमान कहलाते हैं।
SR No.022656
Book TitleJain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSupriya Sadhvi
PublisherBharatiya Vidya Prakashan
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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